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________________ बाधक है । मानव का अल्पज्ञान है । उस अल्पज्ञान को पूर्ण मानना धोखा है, स्वयं के लिए भी और दूसरों के लिए भी। सार यह है कि जो तत्व बुद्धिगम्य है, उन पर तर्क से विचार करना उचित है, पर जो रहस्य सामान्य मानव के लिए अगोचर है, उनके सम्बन्ध में आप्त पुरुषों के कथन पर ही निष्ठा रखना आवश्यक है। आप्त पुरुषों के कथन पर श्रद्धा और तर्क के उचित और विवेकपूर्वक समन्वय से ही यथार्थ बोध सम्भव है । कितने ही चिन्तक एकान्त तर्कवाद के पक्षधर हैं तो कितने ही चिन्तक एकान्त श्रद्धावादी हैं। यह स्मरण रहे कि विवेक-विकल श्रद्धा अन्धश्रद्धा है। उस श्रद्धा में चिन्तन का आलोक नहीं होता। उस श्रद्धा से हेय, ज्ञेय और उपादेय का सम्यक भान नहीं होता। कौन सी वस्तु ग्राह्य है और कौन सी अग्राह्य है, इसका सही निर्णय बुद्धि नहीं कर पाती । बाह्याडम्बर, पाखण्ड और माया की मोहनी मूर्ति को देखकर वह मार्ग से च्युत भी हो सकता है। किन्तु जो चिन्तक परीक्षण प्रस्तर पर कसकर सत्य को स्वीकार करता है, वह कभी उलझता नहीं, वह गुरु गम्भीर ग्रन्थियों को भी अपनी तीक्ष्ण मेधा से सुलझा ना है। और स्वीकृत सत्य पर अंगद की तरह स्थिर रहता है। तर्क की आवश्यकता है, किन्तु श्रद्धा के साथ । आधुनिक कुछ बुद्धिवादी तर्कातीत तत्वों पर भी तर्क के तीर छोड़ते हैं। और जब वे लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते, तो उनके अस्तित्व को हो अस्वीकार कर देते हैं। वे श्रद्धाजन्य प्रदेश को भी बुद्धिगम्य बनाने की निष्फल चेष्टा करते हैं। श्रेष्ठ यही है कि जीवन में श्रद्धा और तर्क का समुचित समन्वय हो । जो जेय तत्व तर्क की परिधि के अन्तर्गत आते हों, उन्हें तर्क की तराजू पर तोलें और जो तर्क की पहुँच से परे हैं तथा साधनाजनित लोकोत्तर ज्ञान के द्वारा ही जाने जा सकते हैं, उन पर दृढ़ श्रद्धा रखी जाए। आप्त पुरुषों के उपदेश को प्रमाणभूत मानकर चला जाए। उन शास्त्र और आगम वाणी को चुनौती न दी जाए। जहाँ तक आगमों को छंटनी का प्रश्न है उस पर अत्यधिक गहराई से चिन्तन करना होगा। छंटनी करने पर उन आगमों में से हम कितना बचा पायेंगे, यह हमारे सामने ज्वलन्त प्रश्न है। शास्त्रों की यथार्थता और अयथार्थता का निर्णय करना भी बहुत गम्भीर समस्या है । सामान्य पाठकों के सामने इन समस्याओं को रखकर उनमें आप्त पुरुषों के प्रति अनास्था पैदा करना भी सर्वथा अनुचित है। तर्क के पीछे यदि श्रद्धा का बल है, तो वह तर्क सम्यक्त्व का भूषण है, यदि श्रद्धा का अभाव है तो वह तर्क सम्यक्त्व का दूषण ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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