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यहाँ सहज जिज्ञासा समूत्पन्न हो सकती है कि जैन आगम साहित्य में गणधर गौतम कदम-कदम पर शंकाएँ करते हैं । वे भगवान महावीर के सामने जिज्ञासा प्रस्तुत करते हैं और भगवान महावीर उन जिज्ञासाओं का समाधान प्रदान करते हैं । भगवती सूत्र में गणधर गौतम के ३६००० प्रश्न हैं, वहाँ पर निम्न शब्दावली प्राप्त होती है
___'जायसंसए', 'संजायसंसए' और 'उपण्णसंसए' क्या इस प्रकार संशय विघातक नहीं है ?
उत्तर में निवेदन है कि इस प्रकार का संशय विघातक नहीं है, क्योंकि संशय दो प्रकार के होते हैं-एक श्रद्धामूलक और दूसरा अश्रद्धामूलक । जिस शंका या संशय के पीछे श्रद्धा छिपी हुई है, वह जिज्ञासा के रूप में व्यक्त होती है, इसलिए वह दूषण नहीं है, पर अश्रद्धामूलक शंका में जिज्ञासा नहीं होती, उसमें केवल बौद्धिक विलास होता है जिसका मांधार अविश्वास है।
कुछ चिन्तकों का यह मन्तव्य है कि श्रद्धा एक प्रकार की मानसिक सुषुप्ति है, उसमें चिन्तन को अवकाश नहीं। जो जी में आया, उसे मान लिया, उसी से चिपट गए, ऐसी श्रद्धा से सत्य के संदर्शन नहीं हो सकते, पर उन चिन्तकों को स्मरण रखना होगा कि जैन धर्म में इस प्रकार की श्रद्धा को महत्व नहीं दिया है। उसका स्पष्ट उद्घोष है कि-'पन्ना समिक्खए धम्मं ।' प्रज्ञा से, तर्कबुद्धि से धर्म की परीक्षा करें।
__यह विराट विश्व विविध विविधताओं से भरा हुआ है। जगत का अर्थ ही है-सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल तत्वों का समूह । बहत से तथ्य से हैं जो मानव की बुद्धि की परिधि में नहीं आते, और ऐसे अत्यन्त सूक्ष्म रहस्य भी हैं जिसे मानव की मति ग्रहण नहीं कर पाती। जिन तथ्यों को समझने के लिए अलौकिक दृष्टि और दिव्य ज्ञान अपेक्षित है, वह दृष्टि और ज्ञान हमें प्राप्त नहीं है। उस दिव्य दृष्टि के लिए जितनी साधना अपेक्षित है, वह महान साधना का भी हमारे में अभाव है । मानव अपनी तीक्ष्ण मेधा पर कितना भी अभिमान करे, पर उसका अभिमान वास्तविक नहीं है । वह अपनो इन्द्रियों के बल-बूते पर बहुत कम जान पाता है । ज्ञात से अज्ञात अधिक है । यदि कोई व्यक्ति यह अहंकार करे कि मैं तो प्रज्ञापुरुष हूँ, मैंने सब कुछ जान लिया है, पर उसके इस अभिमान पर भी दया आती है। इस प्रकार का अहंकार प्रगति का
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