SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और धर्म के प्रति अनन्य निष्ठा माना गया है, तो बौद्ध दर्शन में श्रद्धा का अर्थ बुद्ध, संघ और धर्म के प्रति आस्था है । जैन दर्शन में अर्हन्त को देव के रूप में आदर्श माना है तो बौद्ध परम्परा में बुद्ध को माना है । जैन परम्परा में मार्गदर्शक के रूप में गुरु को माना है तो बौद्ध परम्परा में संघ को स्वीकार किया है। जैन परम्परा में जीवादिनी तत्त्वों का श्रद्धान मुख्य है तो बौद्ध दर्शन में चार आर्य सत्यों का श्रद्धान मुख्य माना है । बौद्ध दर्शन में श्रद्धा का प्रथम, और प्रज्ञा को उसके पश्चात् स्थान दिया गया है। श्रद्धा के कारण ही धर्म का श्रवण ग्रहण, परीक्षण आदि होता है । सौन्दरनन्द बौद्ध परम्परा का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । प्रस्तुत ग्रन्थ में बुद्ध ने नन्द से कहा कि पृथ्वी के अन्दर जल है । जब यह श्रद्धा मानव के अन्तर्मानस में होती है तब आवश्यकता होने पर वह पृथ्वी को खोदता है । कृषक के अन्तर्मानस में जब यह श्रद्धा होती है कि भूमि से अन्न उत्पन्न होता है तभी वह बीज को भूमि में वपन करता है । धर्म की उत्पत्ति में भी प्रस्तुत श्रद्धा ही श्रेष्ठ कारण है । जब मानव तत्त्व को देखता है, सुनता है, तब उसकी श्रद्धा सुस्थिर होती है । साधना के क्ष ेत्र में प्रविष्ट होने वाले साधक को पहली बार जो श्रद्धा होती है, वह एक परिकल्पना के रूप में होती है और अन्त में जाकर वही श्रद्धा तत्व साक्षात्कार के रूप में हो जाती है । तथागत बुद्ध ने भी सम्यक् श्रद्धा को महत्व दिया है, अन्ध श्रद्धा को नहीं । हम पूर्व पंक्तियों में यह लिख चुके हैं कि सभी मूर्धन्य चिन्तकों ने, धर्म परम्पराओं ने श्रद्धा को महत्वपूर्ण स्थान दिया है, उसे साधना का प्राण माना है और शंका को जीवन की दुर्बलता बतलाया है। शंका के रहते हुए जीवन का सम्यक् विकास नहीं हो सकता । लड़खड़ाते कदमों से दूर मंजिल तक नहीं पहुँचा जा सकता और न हिमालय की गगनचुम्बी चोटियों को छुआ जा सकता है : शंका से संकल्प में दृढ़ता नहीं आ पाती और बिना दृढ़ संकल्प के लक्ष्य पर नहीं पहुँचा जा सकता । अतः यह आवश्यक है कि साध्य और साधनों पर पूर्ण विश्वास लेकर ही दृढ़ता के साथ चलें । अन्तःकरण में किसी भी शंका को अवकाश न दे । अन्तर्मानस में जिनोक्त तत्वों पर यदि शंका रहेगी तो साधक अध्यात्म साधना के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकेगा । शंका से सम्यक्त्व नष्ट हो जाती है - 'संका सम्मत्त नासइ' । यही तथ्य श्रीकृष्ण ने इन शब्दों में कहा है कि - 'संशयात्मा विनश्यति' जो आत्मा संशय में है, उसका विनाश होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy