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________________ ६ | सद्धा परम दुल्लहा समाज से बहिष्कृत एवं दयनीय होकर जेलों में पड़े सड़ रहे हैं। नरक की बड़ी जेल में ले जाने वाला भी यही एक कारण है---प्रलोभनों में फिसलने से बच सकने योग्य धीरता और दूरदर्शिता का अभाव । ___ कांटे की नोंक में लगी हुई जरा-सी आटे की गोली का लोभ मछली संवरण नहीं कर पाती । फलतः वह अपने प्राणों से हाथ धो बैठती है। जाल में बिखरे हुए जरा.से दानों के चुगने के लोभ में यदि भोली चिड़िया न पड़ती तो फड़फड़ाकर मरने की आफत से वह बच सकती थी। दीपक के रूप पर लुभाने वाला पतंगा आगा-पीछा न सोचकर दीपक पर टूट पड़ता है, वह आखिर क्या पाता है ? खुद भी जल मरता है और दीपक को भी बुझा देता हैं । रस का लोभी भौंरा कमल की पंखुड़ियों में बंद होकर क्या पाता है ? वह हाथी द्वारा रौंदा जाता है और कमल का भी नाश करवाता है। प्रारंभ में थोड़े-से लालच में पड़कर ठग के चक्कर में पड़ने वाला भोला मनुष्य बुरी तरह मूड लिया जाता है । तिर्यंच तो बेचारे अज्ञानवश रूप, रस, गंध एवं स्पर्श के जरा से लोभ में पड़कर अपना जीवन खो बैठते हैं। परन्तु मनुष्य जैसा समझदार प्राणी भी अपने शारीरिक स्वार्थ के थोड़े से लाभ के लिए अपनी महान् आत्मा को कलुषित करके सर्वनाश अधःपतन करा बैठता है । इन्द्रियों की विषयवासनाएँ तृप्त करने के समय बड़ी प्रिय लगती हैं, परन्तु उस काम-भोगसेवन के दूरवर्ती परिणाम इतने भयंकर, उलझन-भरे एवं मानसिक-शारीरिक यातना देने वाले होते हैं जो अन्त में मनुष्य का सर्वनाश करके ही छोड़ते हैं, उसे असंख्य भवों में भ्रमण कराते हैं, और उन दुर्गतियों और दुर्योनियों में उसे सद्बोध नहीं मिलता। परलोक में दुःख पाने की बात छोड़ दें, इस लोक में भी प्रेयमार्गी--- इन्द्रिय विषयों के दास को उसका भारी मूल्य चुकाना पड़ता है । उदाहरण के तौर पर-एक जिह्वालोलूप व्यक्ति विविध स्वादिष्ट भोजनों, व्यञ्जनों और चटपटे खान-पान को जल्दी-जल्दी अधिक मात्रा में सेवन करने के लिए लालायित रहता है। इस प्रकार जिह्वेन्द्रियतृप्ति में सुख मानने वाला ब्यक्ति अपने इस असंयम के कारण अखाद्य, दुष्पाच्य एवं गरिष्ठ स्वादिष्ट खाद्य-पेय का सेवन करके अपना पेट खराब करता है, रक्त को दूषित करता है.नाना प्रकार की भयंकर बीमारियों का शिकार बनता है। इस प्रकार शारीरिक दुर्बलता की वह समस्या केवल शारीरिक कष्ट ही नहीं, परा धीनता, आर्थिक कठिनाई, कार्यों में असफलता आदि की अगणित समस्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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