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मृगतृष्णा के समान प्रेयमार्ग मरुस्थल में मृग को दूर से पानी ही पानी भरा हुआ दिखता है, बेचारा प्यासा मग उस पानी को पीने के लिए दौड़ता है; परन्तु निकट जाने पर पानी हाथ नहीं लगता, केवल बालू ही नजर आती है। वैसे ही प्रेयमार्गी कामभोगों के सेवन से सूख पाने की आशा में दौड़ लगाता है। परन्तु ज्यों-ज्यों वह कामभोगों का अधिकाधिक सेवन करता है, त्यों-त्यों सुख पाने के बदले उत्तरोत्तर अधिक दु.ख पाता है। पाँचों इन्द्रियाँ क्षोण, चंचल और रुग्ण हो जाती हैं, मन व्यग्र, व्याकुल और अस्थिर हो जाता है । कई बार तो वह अपना सर्वनाश कर बैठता है।
__ अल्पलाभ : महाहानि यह माया या अविद्या ऐसी है, जिसके जाल में फँसकर मनुष्य तत्काल के अल्पलाभ के लिए भविष्य को अन्धकारमय बना लेता है। वह कोई बाहरी या दैवी-दानवी शक्ति नहीं है, वह है मनुष्य की अदूरदर्शिता । जिसे शास्त्रीय भाषा में हम प्रेयमार्ग कहते हैं। दूरगामी दुष्परिणामों की चिन्ता न करके तुरन्त का लाभ सोचने वाले मानव भयंकर से भयंकर दुष्कर्म करने पर उतारू हो जाते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में इस सम्बन्ध में एक सुन्दर रूपक द्वारा समझाया गया है।
एक धनाढ्य ने एक मेमना पाला । उसे वह बढ़िया चावल, जौ एवं चारा-दाना देकर पोसने लगा । धीरे-धीरे वह मेमना अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट और विशालकाय मेंढा बन गया । एक दिन उस धनाढ्य के यहाँ कुछ मेहमान आये। उनकी खातिरदारी करने के लिए उक्त परिपुष्ट मेढ़े को काटकर उसका मांस पकाकर खिलाया। जिस प्रकार वह मेंढा सुन्दर पुष्टिकर भोजन के बदले में अपना सर्वनाश करा बैठा, उसी प्रकार प्रेयार्थी मानव कामसुखों के लोभ में पड़कर हिंसा, झूठ, चोरी, लूट-पाट, माया, व्यभिचार, मांस, मदिरा आदि का सेवन करके हृष्ट-पुष्ट एवं विशालकाय बन जाता है, किन्तु एक दिन जब मौत का वारंट आता है तो उसे ये सब कामभोग सामग्री छोड़कर पापकर्मों से भारी होकर बहुत ही पश्चात्ताप के साथ घोर अन्धकारमय नरकगति में भयंकर यातना भोगने के लिए जाना पड़ता है।
___ आजकल के जेलखानों में निन्दा, घृणा और यातना का जीवन बिताने वाले अधिकांश वे लोग हैं, जो अपने तात्कालिक लोभ, स्वार्थ या आवेश का संवरण नहीं कर सके और भयंकर पापकर्म में रत हो गये । आज वे जन
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