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४ | सद्धा परम दुल्लहा उसे हित-अहित की बातें सुनाकर धर्म नीति की प्रेरणा देते रहते थे। किन्तु दुर्योधन उन सबसे यही कहता था
जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः ।
जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः । मैं धर्म को जानता हूँ, लेकिन उसमें प्रवृत्ति नहीं कर पाता, इसी प्रकार मैं अधर्म को भी जानता हूँ, किन्तु उससे निवृत्ति नहीं कर सकता। पाप और अनीति का मार्ग ऐसा है कि इसमें तात्कालिक लाभ मालूम होता है. परन्तु बाद में जब कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं, तब पाप का भयंकर परिणाम भोगना पड़ता है। इसके विपरीत पुण्य, धर्म या नीति का मार्ग ऐसा है कि इस पर चलने वाले को प्रारम्भ में तप, त्याग एवं आत्मसंयम करना पड़ता है । उनके लाभ देर से दृष्टिगोचर होते हैं। प्रेयमार्गो की मनोवत्ति
उत्तराध्ययन सूत्र में ऐसे अदूरदर्शी लोगों की मनोवृत्ति का विश्लेषण करते हुए कहा गया है
न मे दिठे परे लोए, चक्षुदिट्ठा इमा रई...॥ हत्थागया इमे कामा, कालिया जे अणागया ।
को जाणइ परे लोए, अत्थि वा नत्थि वा पुणो॥ परलोक मेरे सामने प्रत्यक्ष नहीं है; किन्तु यह रात्रि तो मेरी आँखों के समक्ष प्रत्यक्ष है। ये कामभोग तो हस्तगत हैं. (इन्हें तो मैं इच्छानुसार भोग सकता हूँ), किन्तु भविष्यकालीन कामभोग हैं, परोक्षकाल के गर्भ में हैं। और फिर परलोक है या नहीं, इसे कौन जानता है ?
यह है प्रेयमार्गी की मनोवृत्ति ! वह तात्कालिक कामभोगों के श्रणिक सुख के चक्कर में पड़कर बाद में मानसिक एवं शारीरिक क्लेश पाता है। इतना ही नहीं, वह कामभोगों के दरगामी परिणामों को न जान कर हिंसा. झूठ, चोरी, डकैती, अन्याय-अनीति, बेईमानी, ठगी, माया, पैशुन्य आदि के चक्कर में पड़ जाता है। मांस-मदिरा का निःशंक होकर उपभोग करने लगता है। मन-वचन-काया से मतवाला होकर वह धनवैभव और स्त्रियों में आसक्त हो जाता है। इस प्रकार के पाप कर्मों के फलस्वरूप वह यहाँ भी दुःख पाता है, अपना अधःपतन करता है, और परलोक में नरक का अतिथि बनकर भयंकर यातनाएँ सहता है।
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