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________________ श्रेय का पथ ही श्रेयस्कर |३ होकर श्रेयमार्ग को ग्रहण किया, अनुत्तर संयम-पालन करके मुक्ति प्राप्त की। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रेय का मार्ग अपनाने की इच्छा रहते हए भी व्यक्ति प्रेय की ओर लुढ़कने लगता है। मन में संकोच, भय और लज्जा रहते हए भी पैर बरबस उसी दिशा में बढ़ते चले जाते हैं। क्या कारण है कि सुख चाहते हुए भी सुख का मार्ग छोड़कर व्यक्ति दुःख की ओर, तथा स्वर्ग का पथ छोड़कर नरक की ओर चल पड़ता है ? शास्त्रों में इसका मूल कारण बताया है--अज्ञान और मोह। इन दोनों से बचते रहना चाहिए। अज्ञान और मोह के कारण ही व्यक्ति सत्पुरुषों से, सद्ग्रन्थों से तथा अपने अनुभव से पुण्य की महत्ता और पाप को हानियों को जानता-बुझता हुआ भी कुपथगामी बन जाता है । गीता में अर्जुन द्वारा कर्मयोगी श्रीकृष्ण से पूछे जाने पर उन्होंने रजोगुणोत्पन्न काम और क्रोध को ही इसके लिए कारण बताया है। विविध कामनाओं, इच्छाओं, वासनाओं और आवेशों के वशीभूत होकर मनुष्य अदूरदर्शी बनकर तुरन्त उस ओर फिसल पड़ता है। ऐसे प्रेयमार्गी लोग प्रलोभनों के आते ही फिसल पड़ते हैं और क्षणिक सुख के कुचक्र में पड़ कर अपना भविष्य अन्धकारमय बना लेते हैं। उनमें देर या दूर के लाभ तक ठहर सकने योग्य धैर्य एवं साहस नहीं होता। वर्तमान के, आज के, अभी के क्षणिक लाभ की ओर इतना आकर्षित हो जाना कि भविष्य के दुष्परिणामों की ओर ध्यान ही न जाना-प्रेयमार्ग है। इस मार्ग को अपनाने का कारण है.--- अदूरदर्शिता, अधीरता, अविवेक, विचारहीनता या अविद्या । अज्ञान और मोह इनके जनक हैं । वैदिक परम्परा में इसे माया या अविद्या कहा गया है । कई लोग अनीति और अन्याय का, धर्म-अधर्म का या पूण्य-पाप का परिणाम जानते हए भी तुरन्त लाभ के चक्कर में पड़कर अनीति और अधर्म को अपना लेते हैं। दुर्योधन स्वयं राजनीतिज्ञ था । उसकी राजसभा में कई धर्मधुरन्धर विद्वान् थे, कई इतिहास एवं पुराणों के वेत्ता भी थे, जो अहर्निश १. उत्तरा० अ० १३, गा० ३५ २. अन्नाण मोहस्म विवजजणाए......"। ---उत्तरा० ३२/२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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