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________________ १२८ | सद्धा परम दुल्लहा में पड़ जाने पर अपना या अपने परिवार का पालन करना कठिन हो जाए तो उस समय अन्यतीर्थिक कुदेव, कुगुरु की मान्यता-सेवा आदि व्यवहार विवशतापूर्वक करना वृत्तिकान्तार नामक आगार है । ये छहों आगारों का सेवन संकटापन्न परिस्थिति में, तात्कालिक लाचारीवश ही किया जा सकता है, संकट दूर होने पर नहीं । संकटकाल में भी अन्तर्मन से तो वह अपने गृहीत सम्यग्दर्शन के प्रति पूर्ण निष्ठा श्रद्धा रखेगा । ये आगार सम्यक् श्रद्धा से विचलित होने के लिए नहीं, किन्तु जागृतिपूर्वक उसकी सुरक्षा, शुद्धि और वृद्धि करने के लिए हैं । (११) छह भावनाएं - सम्यग्दर्शन को पुष्ट और समृद्ध करने के लिए निम्नोक्त ६ भावनाएँ अपनानी चाहिए - सम्यग्दर्शन ( १ ) धर्मं रूपी वृक्ष का मूल है, (१) धर्मरूपी नगर का द्वार है, (३) धर्मरूपी प्रासाद की नींव है, (४) धर्म- जगत् का आधार है, (५) धर्मरूपी पदार्थ को धारण करने का पात्र (भाजन) है और (६) धर्मरूपी गुणरत्नों को रखने की निधि ( निधान) है | इन सबके भाव स्पष्ट हैं । (१२) सम्यग्दर्शन साधना को पुष्ट करने हेतु छह स्थानक - मूल में सम्यग्दर्शन की आधारशिला आत्मा है । यदि आत्मा के सम्बन्ध में सम्यग्दृष्टि के मन में शंका, भ्रान्ति या अस्पष्टता हो, तो सम्यग्दर्शन शुद्ध और सुरक्षित नहीं रह सकता । इसलिए आत्मा के विकास और उसकी शुद्ध स्वरूप प्राप्ति में साधक-बाधक तथ्यों से सम्बन्धित ६ स्थानकों का प्रतिदिन चिन्तन करना आवश्यक है - ( १ ) आत्मा है, (२) आत्मा नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है, (४) स्वयंकृतकर्मों के फल का भोक्ता है, (५) आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है और (६) मुक्ति का उपाय या मार्ग भी है । आत्मा का अस्तित्व एवं नित्यत्व कई प्रमाणों से सिद्ध है । आत्मा का व्यवहारदृष्टि से कर्मों का कर्तृव्य और भोक्तृत्व भी अनुभवसिद्ध है । आत्मा चाहे जितने बन्धन में पड़ा हो, किन्तु वह सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्र तप की साधना में पुरुषार्थं करके उन कर्मों से सर्वथा मुक्त हो सकता है । कर्मबन्धनों से तथा जन्म-मरण आदि से सर्वथा मुक्त हो जाना ही मोक्ष है । मोक्ष का उपाय रत्नत्रय की साधना में स्वयं पुरुषार्थ करना है । नियति भाग्य, ईश्वर या किसी शक्ति के हाथ में मोक्ष नहीं है, वह स्वयं के हाथ में है । इन छह स्थानकों पर बार-बार चिन्तन-मनन करने से आत्मस्वरूप का दृढ़ निश्चय, शुद्ध आत्मा की अनुभूति प्रतीति और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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