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सम्यश्रद्धा की शुद्धि और वृद्धि | १२६ जिनोक्त तत्वों पर दृढ़ श्रद्धान होता है, जो सम्यक्त्व की शुद्धि में सहायक है।
सम्यक्श्रद्धा की शुद्धि-वृद्धि के आठ अंग कोई भी शरीर के किसी अंग से हीन हो तो उसका शारीरिक सौन्दर्य, सुपुष्टता और शोभा में न्यूनता आ जाती है, इसी प्रकार सम्यग्दर्शन की सुपूष्टता, सुन्दरता एवं शुद्धि के लिए जैनाचार्यों ने उसके आठ अंग या गुण निश्चित किये हैं--(१) निःशंकता (निर्भयता), (२) निष्काक्षता, (३) निर्विचिकित्सा, (४) अमूढ़दृष्टि, (५) उपगृहन (या उपबृहण), (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य एवं (८) प्रभावना । वस्तुतः सम्यग्दृष्टि व्यक्ति को नाना जातियों, नगर-ग्रामों, राष्ट्रों, धर्मसम्प्रदायों, अनेक परिवारों से, समाज एवं संस्कृति के लोगों से तथा उनके धर्मग्रन्थों या मान्यताओं से सम्पर्क आता है। ऐसी स्थिति या उसका व्यवहार, आचरण या शिष्टाचार अपनी मान्यता, सिद्धान्त, आदर्श श्रद्धा के प्रति वफादार रहते हुए कितना सुदृढ़ रहेगा, अपने सहर्मियों, सहकर्मियों एवं साथियों के प्रति कितनी आत्मीयता या वत्सलता होगी ? आत्मलक्ष्यी दृष्टि एवं धर्म-आचरण के साँचे में अपने जीवन को ढालकर वह अन्य लोगों को कैसे प्रभावित कर सकता है ? इसके विषय में जागृत रहने हेतु ८ अंग बताये हैं, जिन्हें दर्शनाचार भी कहा गया है।
इन सब तथ्यों को ध्यान में रखने से ही सम्यक्त्रद्धा की शुद्धि-वृद्धि हो सकती है।
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