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________________ सम्यक्श्रद्धा की शुद्धि और वृद्धि | १२७ भंग करना है। जब सम्यक्त्वी के जीवन पर कोई मरणभय, आजीविका संकट या ऐसी ही कोई अत्यन्त खतरे की स्थिति पैदा हो जाए तब इन आगारों में से विवेकबुद्धि से सोच-समझकर किसो आगार का बाह्य दृष्टि से आपवादिक रूप में सेवन कर सकता है। (i) पहला आगार है- राजाभियोग । यानी शासक का बलप्रयोग । (ii) दूसरा हैगणाभियोग, अर्थात्-जाति, समुदाय, संघ, समाज, व्यावसायिक संगठन अथवा दल गण कहलाता है । गण की अमुक बात अपने सम्यक्त्व के विरुद्ध हो, किन्तु न मानने से उससे सहयोग या संरक्षण मिलना कठिन हो जाता हो । ऐसी स्थिति में गण का आग्रह या अनुरोध अनिच्छा से मानना गणाभियोग आगार है। (iii) बलाभियोग-बल का अर्थ--सेना या बलवान् व्यक्ति है । कोई जबरदस्त व्यक्ति अपने देव या गुरु को नमन करने या किसी सम्यक्त्वविरुद्ध बात को मानने के लिए बाध्य कर दे, और अपनी शक्ति उसका प्रतीकार करके या विरोध करके अपने धर्म पर डटे रहने की न हो तब अनिच्छा से उसका कथन मानना बलाभियोग है। इसी प्रकार (iv) देवाभियोग में भी सम्यक्त्वी को अपने सिद्धान्त के विरुद्ध डाकिनी, शाकिनी, भूत, प्रेत, पिशाच आदि किसी देव के द्वारा बाध्य किए जाने पर अनिच्छा से उसे मानना, नमन आदि करना पड़े तो वहाँ देवाभियोग आगार समझना चाहिए। किन्तु इस आगार का नाम लेकर यदि कोई व्यक्ति किसी लौकिक स्वार्थ, लोभ, अन्धविश्वास, मनोरथपूर्ति, गलत कुरूढि के वश किसी भी मिथ्यात्वग्रस्त या हिंसापरायण मांस-मदिरा से प्रसन्न होने वाले देवी या देव को मानता-पूजता है तो वहाँ देवाभियोग नहीं, वह सरासर सम्यक्त्वभंग का कारण है। (v) गुरुनिग्रह-अपने माता-पिता, बुजुर्ग अध्यापक, कलाचार्य या कुलगुरु के आग्रहवश बलात् उनकी बात माननी पड़े जिससे अपने सम्यक्त्व में आंच आती हो, तो वहाँ गुरुनिग्रह आगार समझना चाहिए। जैसेकिसी के माता-पिता आदि अन्य धर्मसम्प्रदायानुयायी हों अथवा जैनधर्मानुयायी होते हुए उनको कोई भयंकर कष्ट दे रहा हो या असाध्य रोग हो वह मामूली प्रतीकार से न मिटता हो, ऐसो संकटापन्न परिस्थिति में गुरुजनों के दबाव से विवशतापूर्वक अनिच्छा से किन्हीं कुदेव-कुगुरु को मानना या पूजना पड़े तो उसका आमार गुरुनिग्रह कहलाता है । (vi) वृत्तिकान्तार-वृत्ति यानी आजीविका में, कान्तार यानो कठिनता (खतरा) उपस्थित होने पर कोई चारा न हो, आजीविका खतरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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