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सम्यक्श्रद्धा की शुद्धि और वृद्धि | १२५ और सुदृढ़ रहे । अन्य धर्म-सम्प्रदायों अथवा तथाकथित साधकों या उनके अनुगामियों की पूजा-प्रतिष्ठा, आडम्बर, धुआंधार प्रचार, अनुयायियों की संख्या वृद्धि देखकर भी मन को सम्यग्दर्शन से स्खलित न होने दे, इसी विचार पर दृढ़ रहे कि मनुष्य मोक्षरूपफल जब भी पायेगा, सम्यक् श्रद्धा पूर्वक ज्ञान एवं चारित्र की आराधना से ही पाएगा । मगधसम्राट श्रेणिक को सम्यग्दर्शन से कई बार विचलित करने का प्रयास किया गया, फिर भी वह सम्यक्त्व में दृढ़ रहा (२) अपनी शक्ति के अनुसार धर्म एवं धर्मसंघ की उन्नति एवं प्रतिष्ठा के लिए विविध कार्यक्रमों का आयोजन करना, विविध प्रकार से लोगों को धर्म की ओर प्रभावित करना धर्मप्रभावना है । (३) देव, गुरु एवं धर्म तथा धर्म में तत्पर सम्यक्त्वधारक जनों की सेवा-शुभ्रषा, पर्युपासना, वन्दना, सत्कार-सम्मान, नमन-वन्दन आदि करना भक्ति है। (४) धर्म-कौशल-धर्म के सभी अंगों तथा जैनधर्म के अकाट्य सिद्धान्तों एवं तत्वों का युक्ति, प्रमाण, अनुभूति, नय-निक्षेप आदि द्वारा स्वयं जानने और दूसरों को समझाने में दक्षता प्राप्त करना, धर्म कौशल है। (५) तीर्थसेवा का वास्तविक अर्थ है-साधु-साध्वी, श्रावकश्राविकारूप चतुर्विध जंगमतीर्थ, संसार-सागर से तारने में सहायक हैं, यह जानकर उनकी सेवा-पर्युपासना करना।
ये पांचों भूषण व्यक्ति के सम्यग्दर्शन की शुद्धि, वृद्धि एवं गुणसमृद्धि करने वाले हैं।
(८) पाँच लक्षण–सम्यश्रद्धा (सम्यक्त्व) को लक्षित करने वाले पांच लक्षण हैं-(१) शम, (२) संवेग, (३) निर्वेद, (४) 'अनुकम्पा और (५) आस्तिक्य । इन पांचों की विस्तृत व्याख्या हम पहले के प्रकरणों में कर चुके हैं। अपने जीवन में सम्यक्त्व की जाँच-परख के लिए तथा सम्यक्त्व की विशुद्धि, पुष्टि एवं समृद्धि के लिए ये पांच लक्षण होने आवश्यक
(९) छह प्रकार की यतना-सम्यग्दर्शन की सुरक्षा, शुद्धि एवं दृढ़ता के लिए निम्नोक्त छह प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में यतना-सावधानी या जागृति रखना अत्यन्त आवश्यक है-(१) वन्दना, (२) नमस्कार (३) दान, (४) अनुप्रदान, (५) आलाप, और (६) संलाप । सम्यकश्रद्धा की सुरक्षितता देव, गुरु और धर्म पर विवेकपूर्वक श्रद्धान, तत्वदर्शन एवं स्वरूपज्ञान का
१ योगशास्त्र प्र.१
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