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सम्यक् श्रद्धा की शुद्धि और वृद्धि | ११६
अतः चतुर्विंशतिस्तव सम्यक् श्रद्धावान् के सम्यग्दर्शन की विशुद्धि में विशिष्टरूप से सहायक होता है ।
अनगार- धर्मामृत में भी बताया गया है कि सम्यग्दर्शन की शुद्धिआदि गुणों ( अंगों ) का पालन शुद्धि-वृद्धि के लिए देव (अरिहन्त ) श्रुत चारित्ररूप धर्म) की भक्ति अत्यन्त विनय करनी चाहिए ।"
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वृद्धि के लिए जैसे उपगूहन ( उपबृंहण) किया जाता है, वैसे ही सम्यग्दर्शन की गुरु (निर्ग्रन्थ साधु) और श्रुत या धर्म आदि के रूप में गुणयुक्त महानुभावों की
सम्यकश्रद्धा की शुद्धि का उपाय
सम्यक् श्रद्धा की सुरक्षा के लिए जिस प्रकार आठ प्रकार के मद, तीन मूढ़ताएँ, छह अनायतन एवं शंकादि आठ दोष इस प्रकार २५ दोषों तथा पच्चीस प्रकार के मिथ्यात्व आदि का त्याग पूर्व प्रकरण में बताया गया है, उसी प्रकार सम्यक् श्रद्धा की विशुद्धि के लिए भी उन्हीं दोषों का त्याग करना अनिवार्य है । दिगम्बर जैन परम्परा के अनेक ग्रन्थों में इन २५ दोषों को सम्यग्दर्शन की अशुद्धि में मुख्य कारण बताया गया है'मूढ़त्रयं मदश्चाष्टौ तथाऽनायतनानि षट् । अष्टौ शंकादयश्चेति दृग्दोषाः पंचविंशतिः ॥ २
तीन मूढ़ताएँ, आठ मद, तथा छह अनायतन एवं शंकादि आठ ये पच्चीस सम्यग्दर्शन के दोष हैं । इनके रहते सम्यग्दर्शन शुद्ध नहीं रह
१ " हग् - विशुद्धि-विवृद्धयर्थं गुणवद् -विनयं भृशम् ।
- अनगार धर्मामृत अ० २ / ११०
२ (क) ज्ञानसार, तारण तरण-श्रावकाचार आदि ।
(ख) तीनमूढ़ता - देव -गुरु-शास्त्रमूढ़ता । आठ मद - जातिमद, कुलमद, बलमद, लभमद, श्रुतमद, तपोमद, रूपमद और ऐश्वर्यमद । इनका विवरण पूर्व प्रकरण में पढ़िए ।
षट् अनायतन - मिथ्यादेव, मिथ्यादेव के आराधक, मिथ्यातप, मिथ्यातपस्वी, मिथ्याआगम और मिथ्याआगम के धारक, अथवा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र, मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञानी और मिथ्याचारित्री
कादि आदि आठ अंग-दोष - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टित्व, अनूपण ( अनूपगूहन ) अस्थिरीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना |
- सं ०
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