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________________ ११८ | सद्धा परम दुल्लहा आशय यह है कि व्यवहारदृष्टि से सम्यक् श्रद्धा का एक लक्षण दिया गया है - देव, गुरु और धर्म के प्रति अनन्यश्रद्धान । इनमें से देवअरिहन्तदेवों के प्रति श्रद्धा-प्रतीति और भक्ति तभी अनन्य और सुदृढ़ रह सकती है, जब व्यक्ति निष्काम और निःस्वार्थ भाव से अनन्यभक्ति-पूर्वक केवल आत्महित या आत्मशुद्धि की दृष्टि से उनकी स्तुति या स्तव करेगा, उनके चरणों में अपने आपको समर्पित कर देगा, 'अप्पाणं वोसिरामि' के उच्चारण के साथ ही जब उसके हृदय में यह स्फुरणा होगी कि मैं अपने दोषयुक्त मन-वचन-काय से युक्त आत्मा का उनकी साक्षी से व्युत्सर्ग करता हूँ, तभी उसका ध्यान तीर्थङ्करदेवों की स्तुति से अपने तथा उनके विशुद्ध निर्मल आत्मस्वरूप पर जायेगा । साथ ही उसका विशुद्ध चिन्तन भी स्फुरित होगा कि मेरी आत्मा और देवाधिदेव प्रभु की आत्मा में क्या, कितना और क्यों अन्तर है ? उस अन्तर को कैसे मिटाया, घटाया या रोका जा सकता है ? प्रभु की आत्मा और अपनो आत्मा के बीच में रहे हुए अन्तर को दूर करने की तीव्रतम अविरत साधना कौन कर रहे हैं ? उनसे इस अन्तर को दूर करने का मार्गदर्शन कैसे मिल सकेगा ? उक्त अन्तर को दूर करने का शुद्धमार्ग कौन-सा है ? इस प्रकार जैसे-जैसे सम्यग्दृष्टि का तीव्र शुद्ध जिज्ञासा भाव से चिन्तन बढ़ता जायेगा, वैसे-वैसे देव, गुरु और सद्धर्म (आदर्श, मार्गदर्शक और मार्ग ) के प्रति उसकी श्रद्धा सम्यक, शुद्ध और अनन्य भक्तियुक्त होती जायेगी । ज्यों-ज्यों आदर्श (अरिहन्त देव ) और अपनी आत्मा के बीच अन्तर के सम्बन्ध में चिन्तन बढ़ेगा, त्यों-त्यों उनके मानसपटल पर जिनेन्द्रद्वारा प्ररूपित - उपदिष्ट जीव-अजीव के भेदविज्ञान के साथ ही, आस्रवसंवर, पुण्य-पाप, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष आदि तत्वों के स्वरूप के निश्चय प्रति श्रद्धा, प्रतीति, अनुभूति शुद्ध और सुदृढ़ होती जायेगी । इस प्रकार चतुर्विंशतिस्तव व्यवहारदृष्टि से सम्यग्दर्शन की शुद्धि-वृद्धि में महत्वपूर्ण निमित्त बनता है । निश्चयदृष्टि से भी आत्माअष्टकर्ममुक्त शुद्ध आत्मा के स्वरूप की दृढ़ निश्चिति, भेदविज्ञान और अनुभूति होने से निश्चय - सम्यग्दर्शन की विशुद्धि में चतुविशति तीर्थङ्करों ( जीवन्मुक्त परमात्मा) का स्तव निमित्त बनता है । इससे सम्यक् श्रद्धा की विशुद्धि के लिए तत्पर आत्मा में हेय - उपादेय के विवेक का दीपक जल जाता है, जिससे उसे सम्यग्दर्शन पर आई हुई मलिनताओं का शीघ्र ही पता लग जाता है, और वह अपनी सम्यक् श्रद्धा पर आये हुए दोषों को दूर करने के लिए तत्पर हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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