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सम्यक् श्रद्धा की शुद्धि और वृद्धि | ११५ अविवेक, यश-कीर्ति, या किसी प्रकार की इहलौकिक पारलौकिक फलाकांक्षा से युक्त होकर नहीं करेगा, न ही अहिंसादि व्रतों के आचरण में मर्यादातिक्रमण करेगा, वह अणुव्रतों में संभावित अतिचारों-दोषों तथा मलिनताओं से दूर रहेगा । अहिंसादि का पालन निष्काम और निःस्वार्थ दृष्टि से ही करेगा । यही अन्तर है, शुद्ध और अशुद्ध सम्यग्दर्शन में । ऐसी शुद्ध सम्यक् श्रद्धा जिसके जीवन में आ जाती है, उसके लिए आचार्यों ने कहा है
'सम्यग्दर्शन - शुद्ध यो ज्ञानं विरतिमेवि चाप्नोति । दु:खनिमित्तमपीदं तेन सुलब्धं भवति जन्म || 1 अतिचार-विनिर्मुक्त' यो धत्ते दर्शनं सुधीः । तस्य मुक्तिः समायाति, नाकसौख्यस्स का कथा ? " यद्यपि जन्म दुःख का कारण है, तथापि जो व्यक्ति शुद्ध सम्यग् - दर्शन से सम्पन्न होकर ज्ञान और चारित्र (विरति) को प्राप्त कर लेता है, उसका मनुष्य जन्म सम्यक् उपलब्धि है ।"
"जो शुद्धबुद्धि वाला मानव अतिचारों (दोषों) से विमुक्त शुद्ध सम्यक्दर्शन को ग्रहण कर लेता है, उसे मुक्ति स्वयं वरण करने आती है, स्वर्ग के सुखों का तो कहना ही क्या ?"
और तो और, व्रत, नियम आदि स्वीकार न करके भी विशुद्ध सम्यग्दर्शन भी मनुष्य को उच्च आध्यात्मिक भूमिका पर ले जाता है । देवों द्वारा अर्चित केवलज्ञान-सम्पदा भी उसे प्राप्त हो जाती है । इसके अतिरिक्त विशुद्ध सम्यग्दर्शन - सम्पन्न व्यक्ति को मानव श्रेष्ठ बताते हुए रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है-
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ओजस्तेजो-विद्या-वीर्य - यशोवृद्धि विजयविभवसनाथाः । महाकुलाः महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः ॥
जिनका सम्यग्दर्शन विशुद्ध होता है, वे ओज, तेज, विद्या, वीर्य (बल) तथा यश में अन्य लोगों से बढ़कर होते हैं, शत्रुओं के हृदय को जीतने वाले, महाकुलीन, महान् पुरुषार्थी एवं मनुष्यों में तिलक के समान
१ अभिधान राजेन्द्र कोष भा. ७
२ प्रश्नोत्तर श्रावकाचार परि १/१३ ३ रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लो. ३६
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