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________________ ११६ | सद्धा परम दुल्लहा श्रेष्ठ होते हैं। इन उपलब्धियों को देखते हुए यह समझा जा सकता है कि विशुद्ध सम्यग्दर्शन का कितना महत्व, लाभ एवं चमत्कार है । दर्शन-विशुद्धि : शास्त्रीय दृष्टि से प्रत्येक सम्यश्रद्धा-सम्पन्न व्यक्ति को अपनी श्रद्धा (दर्शन) को शुद्ध रखने का प्रत्येक मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति करते समय ध्यान रखना चाहिए । सम्यग्दर्शन की विशुद्धता का सैद्धान्तिक (शास्त्रीय) दृष्टि से भी विचार करना आवश्यक है। दर्शन-विशुद्धता के निम्नलिखित दृष्टिबिन्दु हैं (१) औपशमिक, क्षायिक एवं क्षायोपमिक सम्यग्दर्शनों का स्वरूप समझकर उनको चल, मल, अगाढ़ आदि यथायोग्य अनेक प्रकार से बचा कर शुद्ध रखना। (२) जीवादि तत्त्व भूत पदार्थों अथवा देव-गुरु-धर्म विषयक श्रद्धेय. त्रिपुटी के सम्बन्ध में स्वरूपविषयक रुचि, श्रद्धा, प्रतीति एवं अनुभूतिरूप दर्शन की नाना प्रकार से नि मलता-विशुद्धि रखना। (३) जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग के विषय मे शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टि-प्रशंसा एवं मिथ्यादृष्टि-संस्तव (अतिपरिचय) तथा देव-गुरुधर्म-लोक-मूढ़ताओं आदि से रहित होना, इनसे दूर रहने का ध्यान रखना। (४) धवला में कहा गया है कि तीन प्रकार की मूढ़ताओं, आठ प्रकार के (पूर्वोक्त) मदों तथा मलों से रहित सम्यग्दर्शन का नाम दर्शनविशुद्धता है। (५) 'तन्वार्थ-सर्वार्थसिद्धिवृत्ति'2 में कहा गया गया है-वीतराग प्रभु द्वारा उपदिष्ट मोक्षपथ पर निःशंकित आदि आठ अंगों से युक्त रुचि या श्रद्धा होना दर्शन विशुद्धि है। (६) तत्त्वार्थ-श्लोकवातिक' में दर्शनविशुद्धि का लक्षण दिया गया है- शंकादि मलों के निराकरण से प्रसन्नता-निर्मलता होना। १ ."तिमूडावोढ-अट्ठमल-वदिरित्त-सम्मदसणभावो दंसण-विसुज्झदा नाम । -धवला ८/७९-८० २ तत्त्वार्थ-सर्वार्थसिद्धि ६/२४ । ३ तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक ६/२४/१-२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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