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११४ | सद्धा परम दुल्लहा
आशय यह है कि शुद्ध सम्यग्दर्शन होने पर अहिंसा-सत्यादि धर्म के अंग कहलाने वाले तथ्यों का सम्यग्ज्ञानपूर्वक आचरण धर्म हो सकता है, अन्यथा नहीं । उत्तराध्ययन सूत्र भी इस तथ्य का साक्षी है
'दिट्ठीए हिट्ठिसम्पन्ने धम्म चर सुदुच्चरं ।। अर्थात्- शुद्ध दृष्टि से दृष्टिसम्पन्न होकर सुदुश्चर धर्म का आचरण करो।
कतिपय व्यक्तियों को यह बात जचती नहीं है कि शुद्ध सम्यग्दर्शनरहित कोई अहिंसा आदि का पालन करे, फिर भी उसे धर्म का लाभ न हो, परन्तु तत्त्व-मर्मज्ञ व्यक्ति शीघ्र ही बता देगा कि शुद्ध सम्यग्दर्शन के बिना व्यक्ति अहिंसादि का पालन तो करता है, किन्तु उसके साथ अविवेक, स्वरूप का अज्ञान, भ्रान्ति, यश-कोति, फलाकांक्षा, दूसरों से अपने आपको उच्च मानने या कहने की अहंवृत्ति, स्वयं को उत्कृष्ट या श्रेष्ठ और दूसरों को निकृष्ट या नीचा बताने को ईर्ष्यालु वृत्ति, प्रतिस्पर्धा, अष्टमद या विविधमूढ़ता, भय, प्रलोभन, शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि तथा निदान (इहलौकिक-पारलौकिक सुखभोगरूप फल की आकांक्षा), सन्तान, धन, यश आदि लौकिक लाभ की इच्छा से आदि अनेक दोष एवं अतिचार चिपक जाते हैं । यही कारण है कि श्रद्धा या दर्शन (दृष्टि) इन और ऐसे ही विकारों से दुषित-मलिन होने के कारण अहिंसादि का वह पालन शुद्ध आत्म-स्वभावरूप धर्म न होकर या तो पुण्यरूप होगा या अहिंसादि-पालन के पीछे दसरों को सताने या मारण-उच्चाटन करने की दूर्वत्ति हो तो पापरूप भी हो सकता है । धर्म का कार्य है-पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों का क्षय या आते हुए शुभाशुभ कर्मों का निरोध । शुद्ध सम्यग्दर्शन से रहित होकर अहिंसा आदि का पालन करने वाले व्यक्ति के शुभ-अशुभ कर्मों का क्षय या निरोध दोनों ही न होने से केवल शुभ या अशुभकर्मरूप पुण्य-पाप आदि से युक्त हो जाता है ।
जो व्यक्ति शुद्ध सम्यग्दर्शन से युक्त होता है, वह अहिंसादि धर्म का पालन या आचरण करेगा, तब भी शुद्ध रूप में करेगा। अर्थात्- वह
१ उत्तराध्ययन १८३३
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