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________________ सम्यक्श्रद्धा की शुद्धि और वृद्धि | ११३ "मन्नइ 'तमेव सच्चं निस्संक, जं जिणेहि पन्नतं ।' सुहपरिणामो सव्वकंखाइ-विसुत्तिया-रहिओ ।। एवंविह-परिणामो सम्मदिट्ठी जिणेहिं पन्नत्तो। एसो य भवसमुद्द लंघइ, थोवेण कालेण ॥1 जो यह मानता है कि जो (तत्त्व आदि) वीतराग जिनेन्द्रों ने कहा है, वही सत्य है, निःशंक है, इसी प्रकार जो समस्त आकांक्षा आदि विपरीत अध्यवसायों (परिणामों) से रहित शुद्ध परिणाम वाला है, जिनेन्द्रों ने उसे ही शुद्ध सम्यग्दृष्टि कहा है । ऐसा शुद्ध श्रद्धा-सम्पन्न व्यक्ति संसार-समुद्र को अल्पकाल में ही लांघ (पार कर) जाता है। सचमुच, अशुद्ध या मलिन वस्त्र से कोई भी वस्तु शुद्ध (साफ या स्वच्छ) नहीं की जा सकती, वैसे ही अशुद्ध सम्यग्दर्शन से आत्मा को, या ज्ञान, तप, चारित्र, त्याग, प्रत्याख्यान या जीवन को शुद्ध नहीं किया जा सकता, और न ही शुद्ध रखा जा सकता है। इसीलिए भगवान् महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में कहा था-'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ । - सम्यग्दर्शन से शुद्ध आत्मा में ही सद्धर्म (श्रु त-चारित्रधर्म) टिक सकता है। शुद्ध सम्यग्दर्शन से ही सद्धर्म का लाभ तात्पर्य यह है कि अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहवृत्ति का पालन तो एक अभव्य, मिथ्यादृष्टि या एकमात्र सद्ज्ञानरहित क्रियाकाण्ड का पालन करने वाला भी कर सकता है। इनका पालन करना कोई बुरा नहीं है, अच्छा ही है। इनके पालन करने से जगत् में प्रसिद्धि, प्रशंसा या प्रतिष्ठा भी प्राप्त हो सकतो है, इनके पालन से स्वर्गादि सुख भी प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु इन सबके पालन से सच्चे माने में संवर-निर्जरारूप या रत्नत्रयरूप धर्म का लाभ और भविष्य में कर्मक्षय होने से मोक्ष का लाभ कब हो सकता है ? जैन सिद्धान्त-मर्मज्ञों ने इसका एक ही उत्तर दिया है 'सम्यक्त्वशुद्धाविव धर्मलाभः'3—सम्यक्त्वविशुद्धि होने पर ही धर्मलाभ होता है। १ आवश्यकनियुक्ति मलय गिरिबृत्ति ५६, ६० २ उत्तराध्ययन ३/१२ ३ अमितगति-श्रावकाचार परि, ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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