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*१०८ | सद्धा परम दुल्लहा
आसक्ति, मोह-ममता या मूर्च्छा रखेगा तो वह अपने सम्यग्दर्शन से हाथ धो बैठेगा, उनकी सुरक्षा नहीं कर सकेगा । वह अपने को सम्यक् श्रद्धावान कहेगा, परन्तु आत्म-चिन्तन से विमुख होने से वास्तविक सम्यग्दृष्टि नहीं रहेगा ।
(७) परभाव और स्वभाव के प्रति स्पष्ट दृष्टिवान हो
सम्यग्दृष्टि को आत्मप्रतीति या आत्म-स्वभाव के प्रति अधिकाधिक प्रवृत्त होना चाहिए । इसके लिए उसकी दृष्टि स्वभाव - परभाव के प्रति स्पष्ट होनी चाहिए, उसे स्व-समय पर समय (स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्त) का ज्ञाता होना चाहिए तथा तीव्र कषाय, काम, मोह, मदमत्सर आदि विभावों से भी उसे विरक्ति होनी चाहिए। तभी वह परभावों, विभावों पर सिद्धान्तों को भलीभांति समझकर उनसे दूर रह सकेगा और अपनी सम्यकश्रद्धा को सुरक्षित रख सकेगा । (८) छह अनायतनों से बचे
इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि को निम्नोक्त छह अनायतनों से बचना चाहिए, अन्यथा उनके संसर्ग से सम्यक्त्व सुरक्षित रहना कठिन है । वे छह अनायतन इस प्रकार हैं- (१) मिथ्यादर्शन, (२) मिथ्याज्ञान, (३) मिथ्याचारित्र, (४) मिथ्याज्ञानी, (५) मिथ्यादर्शनी और (६) मिथ्याचारित्री i
किसी भी लौकिक या लोकोत्तर विधि-विधान, परम्परा, रीतिरिवाज अथवा प्रथा का पालन करने से पूर्व इन छह अनायतनों से दूर रहना आवश्यक है। जहां व्यक्ति के सम्यग्ज्ञान ( सिद्धान्त ) में बाधा पहुँचती हो, जहां उसकी सम्यक् श्रद्धा को आँच आती हो और जहां उसकी सम्यक् चारित्र ( व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान, वैराग्य, तप आदि) खण्डित या दूषित होता हो, उनके सेवन और संसर्ग से बचना अनिवार्य है | अतः सम्यग्दृष्टि के लिए उक्त छह अनायतनों से बचना आवश्यक है । अन्यथा, उसके सम्यक्त्व, व्रत, नियम, सिद्धान्त आदि की सुरक्षा होनी कठिन है । किन्हीं आचार्यों ने प्रकारान्तर से ६ अनायतन ये बताये हैं(१) मिथ्यादेव, (२) मिथ्यादेव के आराधक, (३) मिथ्यातप, (४) मिथ्यातपस्वी, (५) मिथ्याआगम और (६) मिथ्याआगम के धारक । सम्यक्त्व की सुरक्षा चाहने वालों को इन ६ अनायतनों के संसर्ग और सेवन से दूर रहना चाहिए। मूल में यदि मिथ्यात्व से सर्वथा दूर रहे तो शेष अनायतनों से अनायास हो दूर हुआ जा सकता है ।
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