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सुरक्षा : सम्यक्श्रद्धा की | १००
लोकमूढ़ता-इसका क्षेत्र बहुत हो व्यापक है। किसी नदी में स्नान करने से, किसी पेड़ के चार चक्कर लगाने से, अमुक कुप्रथाओं को मानने से धर्म या पुण्य होता है । इस प्रकार की सैकड़ों लौकिक रूढ़ियों, परम्पराओं या प्रथाओं को, जिनसे अन्धविश्वास का पोषण होता है, हिंसाअसत्य को बढ़ावा मिलता है, व्रतों (अहिंसादि) और सम्यक्श्रद्धा को हानि पहुँचती है । अतः सम्यग्दृष्टि को सम्यक्श्रद्धा की सुरक्षा के लिए इन और ऐसी सभी मूढ़ताओं से बचना आवश्यक है।
(५) महारम्भ एवं महापरिग्रह से बचो महारम्भ का अर्थ है-जिस प्रवृत्ति में अनाप-शनाप हिंसा हो, जीवों का अहित हो, उनके इन्द्रियादि दशविध प्राणों को हानि पहुँचती हो, ऐसी प्रवृत्तियाँ और महापरिग्रह का अर्थ है-अपने तथा परिवार के जीवन निर्वाह और गृहस्थाश्रम चलाने के लिए आवश्यक धन एवं साधनसामग्री के उपरांत प्रचुर धन, साधन एवं सामग्री का संग्रह करना, उनके प्रति आसक्ति, ममता और उनके अर्जन, रक्षण और वियोग की चिन्ता करना । सम्यग्दृष्टि के लिए आत्म-स्वभाव में रमण करना, आत्मा के लिए अहितकर कर्मास्त्रवों और कर्मबन्धों से बचना जरूरी है । जब वह उक्त महारम्भ और महापरिग्रह की प्रवृत्ति करेगा तो स्वाभाविक है कि वह अपनी आत्मा के विकास, शुद्धि और स्वभाव-रमण से विमुख हो जाएगा। और यह भी सम्भव है कि महारम्भ-महापरिग्रह के पाप के प्रति रुचि तथा सद्धर्माचरण के प्रति उसकी अश्रद्धा और उपेक्षा हो जाए । अतः महारम्भ और महापरिग्रह व्यक्ति को मोहमद, तीवकषाय और विषयासक्ति की ओर घसीटकर उसके सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्र (आचरण) पर आवरण और विघ्न डाल देते हैं । इनके रहने से सम्यक्श्रद्धा का केवल कलेवर रह जाएगा, उसके प्राण उड़ जायेंगे । इसलिए सम्यश्रद्धा की सुरक्षा के लिए इन दोनों को उपशांत करने, घटाने या दूर करने का । अभ्यास करना चाहिए।
(६) पंचेन्द्रिय-विषयों के प्रति तीव्र आसक्ति एवं घृणा से बचो सम्यग्दृष्टि को पाँचों इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों के प्रति तीन राग, मोह, आसक्ति तथा अमनोज्ञ विषयों के प्रति द्वेष, घृणा आदि से दूर रहना चाहिए । शरीर, सांसारिक विषयभोगों, संसार के राग-रंग के प्रति या शरीर से सम्बन्धित सजाव निर्जीव पदार्थों के प्रति अधिकाधिक
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