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१०६ | सद्धा परम दुल्लहा
ये
ये आठों ही मद सम्यग्दर्शन को दूषित एवं लांछित करते हैं, नाना कदाग्रह, दुराग्रह, क्लेश, कलह और युद्ध तक के जनक हैं । इनसे शुद्ध धर्म की हानि होती है । मदान्ध मनुष्य अपने शुद्ध देव- गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा को भी साम्प्रदायिक कट्टरता, और धर्मान्धता से दूषित कर देता है । तथा सम्यग्दर्शन से विमुख होकर वह देवभ्रम गुरुभ्रम, और धर्मभ्रम को ही देव-गुरु-धर्म मानकर अहंकार का पोषण करता है, वह ऋजुता, मृदुता, क्षमा, विनय और पवित्रता (शौच ) सत्य आदि धर्मों को तिलांजलि दे देता है।
(४) सब प्रकार की मूढ़ताओं से बचो
सम्यक् श्रद्धा की सुरक्षा के लिए मूढताओं का त्याग करना आवश्यक है । मूढताएँ मुख्यतया पाँच प्रकार की हैं- देवमूढता, गुरुमूढता, धर्ममूढता, शास्त्रमूढता ( या तत्वमूढता ) एवं लोकमूढता ।
देवमूढ़ता - तब होती है, जब सम्यग्दृष्टि वीतराग देवों के बदले राग-द्वेषी, हिंसापरायण तथा सांसारिक प्रपंचों में फँसे देवों को भी उनके समान मानता और श्रद्धा-अर्चा करता है, अथवा वीतराग देवों का सम्यक् स्वरूप न जानकर उन्हें भी शृंगारी, विलासी, शाप एवं आशीर्वाद देने वाला राग-द्वेषीतुल्य देव मानता है । उनसे सन्तान, धन आदि सांसारिक स्वार्थों की पूर्ति की आशा रखता है ।
गुरुमूढ़ता-निर्ग्रन्थ, निःस्पृह, त्यागी गुरुओं का स्वरूप न समझ कर भोगी - विलासी, आडम्बरी, प्रपंची, परिग्रही या चमत्कार दिखाने वाले तथाकथित गुरु को मानना देवमूढ़ता है ।
धर्ममूढ़ता - अहिंसा, सत्य आदि विशाल व्यापक सद्धर्मों को मान कर अपने माने हुए सम्प्रदाय, मत, पंथ को ही धर्म मानता हो; वहाँ धर्ममूढ़ता होती है । धर्ममूढ़ता के कारण हिंसा, द्व ेष, हत्याकाण्ड, बलात्कार आगजनी आदि पाप पनपते हैं ।
शास्त्रमूढ़ता - अहिंसा, क्षमा, तप, संयम आदि की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन देने वाले वीतराग सर्वज्ञ प्ररूपित सुशास्त्रों के बदले हिंसाप्रेरक ( पशुबलि, नरबलि आदि की प्रेरणा देने वाले ) अज्ञानपूर्वक कष्ट को धर्म बताने वाले कुशास्त्रों को मानना, उनमें क्षुद्राशयों द्वारा लिखी युक्तहीन, कुरूढ़िपरक असंगत सिद्धान्तविहीन बातों को सत्य समझना शास्त्रमूढ़ता कहलाती है ।
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