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________________ सुरक्षा : सम्यक्श्रद्धा की | १०५ बाह्य तपस्या करके व्यक्ति लम्बे-चौड़े उपवास करके अपनी प्रशंसा और प्रसिद्धि सुनता है तो गर्व से फूल जाता है, ऐसा करके सम्यग्दृष्टि तपस्या से जो निर्जरा का लाभ आत्मा को मिल सकता था, उसके बदले वह तप को शुभ कार्य (पुण्य) बन्ध का कारण बनाकर अहंकारवश निकृष्ट और तामस कोटि का बना डालता है । अतः सम्यग्दृष्टि के लिए तपोमद सम्यअद्धा में बाधक है, तप को दूषित करने वाला है । (६) लाभमद - धन, समृद्धि या वैभव के (भौतिक) लाभ का गर्व भी सम्यग्दृष्टि के लिए घातक है, क्योंकि धन-वैभव आदि सभी भौतिक पदार्थ नाशवान् हैं । शास्त्र में बताया गया है कि ऋद्धि (धन-वैभव ), रस और साता ( सुखसामग्री ) की प्राप्ति का गर्व (गौरव) आत्मा को अशुभ कर्म से भारी बनाने वाला है । सच्चा सम्यग्दृष्टि जानता है कि धन, सम्पत्ति, अभीष्ट पदार्थ या सुख सामग्री का लाभ गर्व करने पर पतन की खाई में डालने वाला है । गर्व और मोह (आसक्ति) का गठबन्धन है । इस दृष्टि से इन नाशवान पदार्थों के प्रति आसक्ति और मद आत्मा को कर्म बन्धनों में जकड़ने वाले हैं । अतः लाभ का मद भी सम्यग्दर्शन को दूषित और कलंकित करने वाला और मिथ्यात्व के प्रवाह में वहा ले जाने वाला होता है । (७) श्रुतमद या ज्ञानमद - सम्यग्दृष्टि के लिए शास्त्रज्ञान या तत्वज्ञान का गर्व भी सम्यक्ज्ञान के विकास में बाधक है तथा विशिष्ट ज्ञानियों की आशातना ( अवमानना) करने से ज्ञानावरणीयकर्मबन्ध का कारण है । सम्यग्दृष्टि को यह सोचना चाहिए कि सर्वज्ञों के ज्ञान के सामने छद्मस्थ - अल्पज्ञ का ज्ञान कितना नगण्य है, अल्प है ? उस बूंदभर ज्ञान का गर्व ही क्या ? अतः ज्ञान का मद सम्यग्दर्शन को मलिन बनाने वाला है । The (८) ऐश्वर्यमद या सत्तामद - सत्ता या ऐश्वर्य के मद में उन्मत होना सम्यग्दृष्टि के लिए पतन का कारण है । सत्ता या ऐश्वर्य ( प्रभुता ) का मद करके मनुष्य अपनी पूर्वकृत पुण्य की कमाई खोकर बदले में दूसरों पर हुकूमत जमाकर, गीबों पर अन्याय-अत्याचार करके, नाना यंत्रणा देकर या अधीन (गुलाम ) बनाकर पाप-कमाई करता है । सत्ता या प्रभुता पाकर नम्र बनने और दूसरों की (धर्म- संघ की, या दीन-दुःखियों की ) निःस्वार्थ भाव से सेवा करने वाला व्यक्ति तप-संयम ( संवर) एवं निर्जरा की या पुण्य की कमाई कर लेता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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