________________
१०२ ! सद्धा परम दुल्लहा
का कारण मानते हैं और अज्ञानवादी अज्ञान को ही एकान्ततः कल्याणकर मानते हैं, वे ज्ञान के सर्वथा विरोधी हैं ।
इस प्रकार मिथ्यात्व के इन सभी भेदों के स्वरूप को ज्ञ-परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान- परिज्ञा से इनका त्याग करना सम्यक् श्रद्धा की सुरक्षा के लिए सर्वप्रथम अनिवार्य है ।
(२) मिथ्यात्व के अन्त रंग-बहिरंग कारणों से बचो
सम्यकश्रद्धा के लिए मिथ्यात्व से बचना, जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक है- मिथ्यात्व के अन्तरंग व बहिरंग कारणों से बचना । मिथ्यात्व में प्रवृत्त होने के पूर्वोक्त दो बाह्य कारण बताए गये हैं । मिथ्यात्व के अन्तरंग कारण मुख्यतया ७ हैं- अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय । इन सातों कर्म प्रकृतियों से बचना आवश्यक है । इन सातों को सात प्रकार की ज्वाला ( सप्ताचि ) कहा जाता है । ये सम्यग्दर्शन ( सम्यक् श्रद्धा ) को जला
ती हैं । जिस प्रकार पाला पड़ने से हरी-भरी फसल जल जाती है या सूख जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व के इन अन्तरंग तीव्रतम कषाय का पाला पड़ने से तथा तीव्र मोह के उदय से सम्यग्दर्शन सूख जाता है, नष्ट हो जाता है । अज्ञात मन में ये तीव्रतम कषाय एवं मोह के संस्कार जमा हों तो आत्म-संकेत ( ओटो सजेशन), प्रभु प्रार्थना, तीव्रतम भक्ति, देव-गुरु-धर्म पर तथा जिनोक्त तत्वों पर तीव्रतम श्रद्धा आदि से इन्हें निकाल देना चाहिए । अन्यथा इनके अस्तित्व से जन्म-जन्मान्तर तक मिथ्यात्व कष्ट देता रहता है । वैसे देखा जाए तो मिथ्यात्व के मुख्य कारण दो हैं- अज्ञान एवं मोह | ये दोनों ही मिलकर १८ पापस्थानों की वृद्धि करते हैं। मनुष्य में हिताहित, कर्तव्य - अकर्तव्य, श्र ेय अश्र ेय, धर्म-अधर्म आदि का विवेक नहीं होने देते । इसीलिए १८ पाप-स्थानों में सबसे बड़ा पापस्थान मिथ्यादर्शन-शत्य को माना गया है । इसके प्रभाव से जीव निगोद में जाता है, जहाँ दीर्घ काल तक अनेक क्षुद्रभव (जन्ममरण) करने पड़ते हैं ।
बहिरंग कारणों में पांच अतिचार, आठ प्रकार के मद, सब प्रकार की मूढ़ताएँ आदि हैं । सम्यवत्व की सुरक्षा के लिए इनसे बचना भी अति आवश्यक है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org