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________________ सुरक्षा : सम्यक्श्रद्धा को | १०३ (३) सम्यक्त्व को सुरक्षा पांच अतिचारों से करो सम्यक्श्रद्धा की सुरक्षा के लिए शास्त्र में वर्णित सम्यक्त्व के पांच अतिचारों से बचना आवश्यक है। अतिचार उस दोष को कहते हैं, जिसमें सम्यग्दष्टि को ऐसा भ्रम रहता है कि इतनी-सी शंका आदि या किसी मिथ्यात्वी से संसर्ग कर लिया तो कैसे दोष हो जाएगा? जिनोक्त तत्वों या देव-गुरु-धर्म के स्वरूप के प्रति शंका, संदेह या उपेक्षा प्रकट करना शंका है। अथवा जीव आदि तत्व जिनेन्द्रों ने बताए तो हैं, पर वे हैं या नहीं ? कांक्षा-दोष वह है जिसमें धर्म, अथवा देव-गुरु की आराधना से सांसारिक या भौतिक फलाकांक्षा करना । अथवा अन्य तैर्थिक व्यक्तियों के आडम्बर-चमत्कार आदि को देखकर उधर झुक जाना या उसमें फंस जाना अयवा धर्म या धर्मदेवों, देवाधिदेवों से चमत्कार या आडम्बर की इच्छा करना। विचिकित्सा का अर्थ है--धर्माचरणादि के फल में सन्देह प्रकट करना । जैसे-अरहन्त प्रभु की अथवा धर्म की आराधना तो कर रहा हूँ, परन्तु इसका फल मिलेगा या नहीं, इस प्रकार का संदेह होना। मिथ्यादृष्टिप्रशंसा-मिथ्यादर्शन, अथवा मिथ्यात्वी की प्रशंसा करना, उसे सार्वजनिक प्रतिष्ठा देना, मिथ्यात्वग्रस्त धर्मों, धर्मगुरुओं एवं देवी-देवों की अपने आर्थिक या अन्य किसी सांसारिक स्वार्थ के लिए पूजाप्रतिष्ठा करना,अथवा जो मिथ्यादर्शन से ओतप्रोत है,उसे वन्दना, सत्कारसम्मान करना। मिथ्या दृष्टि-संस्तव-का लक्षण है, जो लोग मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं, वे चाहे अर्थ और सत्ता की दृष्टि से कितने ही महान् हों, चाहे अद्भुत चमत्कारी हों, जादूगर हों, अनेक विद्याओं, भाषाओं, कलाओं के जानकार हों, परन्तु उनके जीवन में घोर नास्तिकता हो, वे महाहिंसादि पापाचरण में रत हों, भोगी-विलासी हों, उनकी स्तुति करना, उनसे अत्यधिक साठ-गांठ मेलजोल या संसर्ग करना। सम्यकश्रद्धा के लिए यह अतीव घातक है। कहावत है-'संसर्गजा दोष गुणा भवन्ति ।” सामान्यतया जिज्ञासु बुद्धि से या हितोपदेश या प्रेरणा लेने के लिए पापी से पापी व्यक्ति भी आए तो उससे सम्पर्क करना, उसको सुधारने की दृष्टि से परिचय करना मिथ्यादृष्टिसंस्तव नहीं है। सम्यक्श्रद्धा को रक्षा के लिए इन शंकादि पांच अतिचारों से बचना नितान्त आवश्यक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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