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________________ १०० | सद्धा परम दुल्लहा (१६) लौकिक मिथ्यात्व - अपने सम्यक्त्व और व्रतों का विचार किए बिना ही लौकिक कुरूढ़ियों में फँसे रहना लौकिक मिथ्यात्व है । जैसे नदी की बाढ़ को रोकने के लिए कुत्त े आदि को, सन्तानादि के लिए बकरे आदि की बलि देना, अमुक नदी में स्नान करने से पाप मुक्त होने की मान्यता आदि लोकरूढ़ि सम्यक्त्व तथा अहिंसा व्रत की घातक होने से लौकिक मिथ्यात्व है । ( १७ ) लोकोत्तर मिथ्यात्व - पारलौकिक उपलब्धियों या स्वर्गादि प्राप्ति के लिए या प्रसिद्धि, प्रशंसा या प्रतिष्ठा आदि के लिए धर्म की साधना करना लोकोत्तर मिथ्यात्व है । (१८) कुप्रावचनिक मिथ्यात्व - मिथ्या दार्शनिक विचारणाओं को मानना, उन पर श्रद्धा करना । (१६) न्यून मिथ्यात्व - पूर्ण सत्य या तत्त्व-स्वरूप को आंशिक सत्य या न्यून समझना । आंशिक सत्य को ( २० ) अधिक मिथ्यात्व - वहां होता है, जहां उससे अधिक सत्यरूप या पूर्ण सत्य समझा जाता है । (२१) विपरीत मिथ्यात्व - वस्तुतत्व को उसके करके, उससे विपरीत रूप में ग्रहण करना, या समझना है । जैसे - द्रव्यार्थिकनय से आत्मा नित्य है, किन्तु पर्यायार्थिकनय से भी आत्मा को नित्य मानना विपरीतमिथ्यात्व है। विपरीत दृष्टि वाला तथ्य या तत्त्व को अतथ्य या अतत्व समझता है | (२) अक्रिया मिथ्यात्व - आत्मा (जीव ) को एकान्तरूप से अक्रिय मानना, अथवा सिर्फ ज्ञान को महत्व देना क्रिया ( चारित्र) के प्रति उपेक्षा करना । (२३) अज्ञान मिथ्यात्व - शुभाशुभ, तत्त्व - अतत्त्व, हित-अहित कर्तव्य - अकर्तव्य एवं धर्म-अधर्म का ज्ञान या विवेक करने की क्षमता का अभाव अज्ञान मिथ्यात्व है । संशय, विपरीत, गृहीत एवं एकान्त मिथ्यात्व से अज्ञान - मिथ्यात्व भिन्न है । संशय आदि मिथ्यात्वों में ज्ञान तो है, पर वह अयथार्थ है, जबकि अज्ञान मिथ्यात्व में अपेक्षित ज्ञान या विवेक का अभाव होता है । अज्ञानमिथ्यात्वी को अपने लक्ष्य, हित, धर्म और कर्तव्य आदि का भान नहीं होता । वह मूढदृष्टि होता है । वह वीत - राग देव को रागयुक्त, अपरिग्रही साधु को परिग्रही एवं अहिंसादि युक्त धर्म को हिंसादियुक्त मानता है । (२४) अविनय मिथ्यात्व है - देव, गुरु आदि पूज्य वर्ग के प्रति या Jain Education International स्वरूप में ग्रहण न विपरीत मिथ्यात्व For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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