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________________ सुरक्षा : सम्यक्श्रद्धा की | 86 भले ही हो, उसमें विचार और विकास सीधी दशा में होने का अवकाश रहता है । पर अनाभिग्रहिक में तो यह अवकाश बिलकुल ही नहीं रहता। इन दोनों की तुलना क्रमशः तोत्र ज्वर और दीर्घकालस्थायो मन्द ज्व रसे की जा सकती है। इन दोनों का अन्तर दूसरे प्रकार से भी बताया गया है। आभिग्रहिक मिथ्यात्व में शरीर, मन और इन्द्रिय आदि को आत्मा समझा जाता है, अर्थात्- वहाँ शरीर आदि में ही आत्म-बुद्धि होती है, जबकि अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व में आत्मा को किसी भी रूप में आत्मा नहीं समझा जाता, अर्थात्--वहाँ शरीरादि के अतिरिक्त आत्मा का शुद्व चैतन्य के रूप में भान ही नहीं रहता । अभिगृहीत मिथ्यात्व में कदाचित देहादि से भिन्न आत्मा की प्रतीति हो भी जाए तो भी वह या तो अगु या महत् के रूप में, अथवा एकान्त कर्ता या अकर्ता के रूप में होती है; अथवा एकान्त नित्य या अनित्य के रूप में स्वरूप विपर्यास होता है । बहुधा आभिग्रहिक मिथ्यात्वी आत्मा अपने देहादि के अध्यास में फंसो रहतो है, उसे शुद्ध चैतन्य रूप आत्मा की प्रतीति नहीं होती। (१३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व-वहाँ होता है, जहाँ सत्य जानते हए भी उसे स्वीकार नहीं किया जाता, अपना असत्य मान्यता को अहं. कारवश दृढ़तापूर्वक पकड़े रहा जाता है। (१४) सांशयिक मिथ्यात्व-संशयगोल बने रहकर सत्य का निर्णय न करना । सांशयिक दशा अनिर्णय को स्थिति है। सांशयिक मिथ्यात्वी लक्ष्योन्मुखता और लक्ष्यविमुखता के बोच का स्थिति में डोलता रहता है। ऐसा मिथ्यात्वी नैतिक दृष्टि से भी भ्रष्ट हो सकता है । जहाँ संशय, शंका या प्रश्न निर्णय करने के लिए या वस्तुतत्व को समझने के लिए किया जाता है, वहाँ सांशयिक मिथ्यात्व नहीं होता, बशर्ते कि वह जिज्ञासा, सरलता या लक्ष्याभिमुखता के साथ हो। किन्तु जो जावादि तत्व सर्वज्ञ वीतरागभाषित है एवं जिनके स्वरूप का प्ररूपण सर्वज्ञों ने किया है, उनके विषय में संशय करना कि जीवादि तत्व हैं या नहीं ? वहाँ सांशयिक मिथ्यात्व है। (१५) अनाभोगिक मिथ्यात्व-बिना ही उपयोग के, सनक में आकर तत्त्व को तत्त्व भी कह देना, अतत्त्व भी। अहिंसा को कभी हिंसा कह देना, कभी अहिंसा, इत्यादि प्रकार की उपयोगशून्यता जहाँ होती है, वहां अनाभोगिक मिथ्यात्व होता है। इनसे आगे के १६ से लेकर २५ तक के मिथ्यात्व इस प्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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