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१८ | सदा परम दुल्लहा है, इत्यादि आस्थाहीनताएँ या नास्तिकताएँ मिथ्यात्व के ही रूप हैं, जिन्हें जीव मोहकर्म से मूढ़ होकर अपनाता है। इसी सन्दर्भ में सूत्रकृतांग में कहा गया है
लोक-अलोक, जीव-अजीव, धर्म-अधर्म, बन्ध-मोक्ष, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, वेदना-निर्जरा, क्रिया-अक्रिया, क्रोध-मान-माया-लोभ, रागद्वष, चतुर्गतिक संसार, देव-देवी, सिद्धि-असिद्धि, सिद्धों का स्व-स्थान, साधु-असाधु, कल्याण-पाप आदि नहीं हैं, ऐसी संज्ञा (मान्यता या श्रद्धा) कदापि नहीं करना चाहिए, किन्तु निश्चय ही ऐसा मानना चाहिए कि लोक-अलोक से लेकर कल्याण-पाप आदि सबका अस्तित्व है। जो इन तत्वों के अस्तित्व को मानता है, वह सम्यग्दृष्टि है, और जो इनका नास्तित्व मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है।
मिथ्यात्व के पच्चीस भेद - प्रकारान्तर से मिथ्यात्व के पच्चीस भेद आवश्यक सूत्र में वर्णित हैं। उनमें से स्थानांगसूत्र में प्रतिपादित दस भेदों का वर्णन इससे पूर्व किया जा चुका है। इनके उपरान्त स्थानांग-सूत्र में तात्विकदृष्टि से पाँच भेद और बताये गए हैं । वे इस प्रकार हैं
(११) आभिग्राहक मिथ्यात्व-मन और बुद्धि से विकसित यानी विचारशक्ति से विकसित चेतनाशील होने पर भी परम्परागत धारणाओं की समीक्षा किये बिना अपने मताभिनिवेश के कारण अतत्व में तत्वरूप श्रद्धा को अपनाना आभिग्रहिक या अभिगृहीत मिथ्यात्व कहलाता है। यह अभिगृहीत मिथ्यात्व इसलिए कहलाता है कि यह विचारजन्य या उपदेशजन्य होता है। इसमें तत्व-विषयक यथार्थ श्रद्धान का अभाव होता है।
(१२) अनाभिग्राहक मिथ्यात्व-जहाँ विचारदशा जागृत न हई हो, अनादिकालीन दर्शनमोहनीय कर्म के आवरण के कारण सतत मूढदशा होती है, ऐसे निगोदवर्ती तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के अविकसित जीवों द्रव्य-मन न होने से तत्व के श्रद्धान का अभाव यानी तत्व का अत्रद्धान अनाभिग्रहिक अथवा अनभिग्रहीत मिथ्यात्व है जो उपदेश निरपेक्ष-विचारशून्य दशा में होता है । इन जीवों में केवल मूढदशा होने से न तो तत्त्व का श्रद्धान होता है, न अतत्व का श्रद्धान ।
इन दोनों प्रकार के मिथ्यात्वों में अनभिगृहीत (या अनाभिग्रहिक) मिथ्यात्त्व अधिक भयंकर होता है क्योंकि उसमें किसी प्रकार की विचारदशा नहीं रहती। विचारशील प्राणी के लिए आभिग्रहिक मिथ्यात्व भयंकर
१ सूत्रकृतांग सूत्र श्र. २ अ. ५ गा.१२ से १८
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