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________________ सुरक्षा : सम्यक्त्रद्धा की | ६७ मानने की जो बुद्धि है, तथा कुगुरु को सद्गुरु मानने की और कुधर्म या अधर्मतत्व को, सद्धर्म तत्त्व मानने की जो विपरीत बुद्धि है, वह मिथ्यात्व मिथ्यात्व के ये दोनों व्यावहारिक लक्षण हैं। तात्त्विक दृष्टि से कर्मग्रन्थ में मिथ्यात्व का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है-मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से जीव के स्वभाव से विपरीत श्रद्धान रूप परिणाम को अथवा तीव्रतम कषायवृत्ति और इष्ट -अनिष्ट विषयों के प्रति मोहवश तीव्र राग-द्वेष भाव को मिथ्यात्व कहते हैं। मिथ्यात्व के दस रूप-व्यावहारिक दृष्टि से मिथ्यात्व के दस रूपों का उल्लेख स्थानांगसूत्र में इस प्रकार है (१) अधर्म में धर्मसंज्ञा, (२) धर्म में अधर्मसंज्ञा, (३) (मोक्ष) मार्ग में कुमार्ग-संज्ञा, (४) कुमार्ग (संसार के मार्ग) में मार्गसंज्ञा, (५) जीव में अजीव-संज्ञा, (६) अजीव में जोव-संज्ञा, (७) सुसाधु में असाधु-संज्ञा, (८) असाधु में सुसाधु-संज्ञा, (९) (आठ कर्मों से) मुक्त में अमुक्त संज्ञा और (१०) अमुक्त में मुक्त-संज्ञा । संज्ञा शब्द यहाँ मानने, समझने, कहने तथा आस्था करने एवं तथारूप बुद्धि होने आदि अर्थों में प्रयुक्त किया गया है। मिथ्यात्व के अन्य रूप-इसी प्रकार जीव, अजीव आदि नौ तत्वों को विपरीत रूप से समझना, यथार्थरूप में न मानना अथवा इनका अस्वीकार करना, आत्मा, लोक, कर्म (शुभाशुभ) और क्रिया (शुद्ध-अशुद्ध अथवा शुभाशुभ आचरण) पर आस्था न रखना, और यह कहना कि आत्मा नाम का कोई अन्य पदार्थ नहीं है, पंचभौतिक शरीर ही आत्मा है, स्वर्ग, नरक आदि लोक नहीं हैं, शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप) कर्म भी नहीं है, तथा हिंसा-अहिंसा, सत्य-असत्य, ब्रह्मचर्य-अब्रह्मचर्य आदि शुभाशुभ क्रियाएँ भी नहीं हैं। इन्द्रियों और मन पर संयम (नियन्त्रण) रखने का कोई लाभ नहीं है, इन्हें खुला छोड़ दो, स्वेच्छाचरण-स्वच्छन्दाचरण से जीव सुख पाता १ अदेवे देवबुद्धिर्या, गुरुधीरगुरौ च या । अधर्मे धर्मबुद्धिश्च, मिथ्यात्वं तद् विपर्ययात् ।। -योगशास्त्र प्र. २, श्लोक ३ २ स्थानांगसूत्र स्थान १०, उ. १, सू.०३४ ३ आचारांग श्रु. १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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