SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ | सद्धा परम दुल्लहा वह क्रमशः द्वेष और राग से लिप्त हो जाता है, जिससे अशुभास्रव और अशुभ कर्मों का बन्ध हो जाता है, जबकि सम्यग्दृष्टि सम्यक् श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) के दिव्य प्रकाश में बाह्य दुःखों के बीच भी आन्तरिक सुखानुभूति करता है, और बाह्य सुख के समय भी वह स्वस्थचित्त एवं सावधान होकर रहता है, वह विषय सुखों में आसक्त एवं लुब्ध नहीं होता । वह सुख और दुःख दोनों में राग-द्व ेष से दूर रहकर समभाव में स्थित रहता है । मिथ्यादृष्टि नरकक - तिर्यञ्च आदि के भयंकर दुःखों, प्रतिकूल परिस्थितियों एवं विपत्तियों के समय व्याकुल होकर समभाव से विचलित होकर अपना पतन करता ही है, सुख-समृद्धि के समय भी वह उन सुख भोगों में लुब्ध आसक्त होकर अपना पतन कर लेता है । सम्यग्दृष्टि संवर और निर्जरा तत्व का ज्ञाता एवं आत्मद्रष्टा होने से न तो भयंकर दुःखों के समय समभाव से विचलित होता है और अतीव सुख-समृद्धि के समय संवर और निर्जरा करने से चूकता है । इसीलिए मिथ्यात्व को महान्धकार कहा है । तथा सूत्रकृतांग सूत्र में बताया है कि मिथ्यात्वी अनार्य जीव तीव्र मिथ्यात्वज्वर से ग्रस्त होकर संसार में परिभ्रमण करते हैं । मिथ्यात्व जन्म-मरण के अनन्त दुःखों की परम्परा को बढ़ाता है । मिथ्यात्वतिमिर के कारण जीव अनन्तानुबन्धी (तीव्रतम ) बोध, मान, माया और लोभ, तथा सम्यक्त्व - मिथ्यात्व, मिश्र मोहनीय; इन सात प्रकार की ज्वालाओं से जलता रहता है, मिथ्यात्वी के जीवन में कभी मानसिक सुख-शांति नहीं रहती । वह इन सप्तज्वालाओं के कारण नाना दुःख और कष्ट पाता है । मिथ्यात्व का स्वरूप- सामान्यतः जैनागमों में अज्ञान और विपरीत बुद्धि अथवा विपरीत श्रद्धा के लिए मिथ्यात्व शब्द प्रयुक्त हुआ है । जिस प्रकार मद्य पीने से मनुष्य की बुद्धि भ्रान्त और मूढ़ हो जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्वमोह कर्म के उदय से वह आत्मीय एवं श्रद्धेय तत्वों को अनात्मीय एवं अश्रद्धय समझता है. संवर- निर्जरारूप धर्म या सम्यग्ज्ञानदर्शन - चारित्ररूप धर्म को वह अधर्म समझता है या पित्तज्वरग्रस्त व्यक्ति की मधुर रस में अरुचि की तरह, मिथ्यात्वी धर्म में बिलकुल रुचि नहीं रखता । इसीलिए मिथ्यात्व का एक लक्षण तो यह दिया गया है कि जो तत्व, तथ्य या पदार्थ जैसा हो, उसे वैसा न मानना, विपरीत मानना मिथ्यात्व है। दूसरा लक्षण योगशास्त्र में दिया गया है— 'कुदेव को देव १ स्थानांग सूत्र ( टीका) स्थान १० सू. ७३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy