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सुरक्षा : सम्यक्श्रद्धा की | ६५
इनसे क्यों और कैसे सम्यग्दर्शन को बचाना चाहिए ? इसके विषय में अब हम क्रमशः संक्षिप्त झांकी दे रहे हैं
१ - मिथ्यात्व और इसके भेद प्रभेदों से बचो !
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मिथ्यात्व से बचो – सम्यक् श्रद्धा की सुरक्षा के लिए सर्वप्रथम मिथ्यात्व का त्याग करना आवश्यक है । जिस प्रकार प्रकाश के लिए अंधकार को दूर करना जरूरी है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के प्रकाश के लिए मिथ्यात्व के अन्धकार को दूर करना जरूरी है मिथ्यात्व जब तक रहेगा तब तक सम्यक्त्व, सम्यग्दर्शन का सम्यक् श्रद्धा यथार्थ रूप में जीवन में नहीं आ सकेंगे। मिथ्यात्व के कारण व्यक्ति की बुद्धि, दृष्टि, श्रद्धा, रुचि और प्रतीति सभी विपरीत हो जाती हैं । जैसे पिपासा से आकुल मृग भ्रान्तिवश मृगमरीचिका को पानी से भरी समझकर उसकी ओर बेतहाशा दौड़ता है, वैसे ही मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति भ्रान्तिवश आपातरमणीय क्षणिक विषय-सुखों में सुख समझकर विषय-सुखों की पिपासा से व्याकुल होकर उनको पाने के लिए अहिंसा, सत्य आदि स्वाभाविक गुणों को ताक में रखकर दौड़ लगाता है । पर मिलते हैं - दुःख, चिन्ता, शोक, ईर्ष्या, अशान्ति आदि । मिथ्यात्व से मूढ़ बना हुआ व्यक्ति कुदेव, कुगुरु और कुधर्म के चक्कर में पड़ जाता है, जीव आदि तत्वों को अतत्त्व और अतत्त्वों को तत्त्व समझता है, फलतः वह जन्म-मरण रूप संसार में परिभ्रमण करता रहता है । मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति लम्बे-चौड़े क्रियाकाण्ड, अनुष्ठान, दीर्घकालीन एवं कष्टकारक तप करता है, परन्तु उनके पीछे दृष्टि सम्यक् न होने तथा सम्यक्ज्ञान न होने से वे तप, तथा वे क्रियाकाण्ड आदि सब उसे कर्मों से मुक्त करने वाले न होकर संसार परिभ्रमण के कारण बनते हैं । इसीलिए भक्त-परिज्ञा प्रकीर्णक में कहा गया है कि जीव (आत्मा) को मिथ्यात्व जितना अहित एवं तीव्र महादोष से दूषित करता है, उतना बिगाड़ या अहित काला सर्प, आग या विष भी नहीं करते । मिथ्यादृष्टि यथार्थ रूप से वस्तु के स्वरूप को नहीं समझ पाता, उसकी दृष्टि सम्यक् न होने के कारण वह दुःख, कष्ट या विपत्ति के समय आकुल व्याकुल हो जाता है, और सुख अहंकार से उन्मत्त, हर्षाविष्ट । इन दोनों ही स्थितियों में
१ "नवितं करेइ अग्गी ने अ विसं किण्हसप्पो वा ।
जं कुणइ महादोसं, तिव्वं जीवस्स मिच्छत्तं ॥ "
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- भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक गा. ६१
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