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६२ | सद्धा परम दुल्लहा
इस प्रकार आत्म-स्वरूप की स्वानुभवजन्य प्रतीति होने के कारण सम्यग्दृष्टि आत्मा सारी भव-चेष्टा को नाटक के खेल की तरह निलिप्त भाव से---साक्षीभाव से-देखता है। वह समझता है कि इस समय का मेरा व्यक्तित्व कर्मजन्य होने के कारण संसाररूपी नाटक के मंच पर एक अभिनय मात्र है। नाट्यशाला के स्टेज पर अभिनयकर्ता कभी शासनसंचालक राजा बनता है, कभी दीनता प्रदर्शित करने वाला भिखारी बनता है, कभी वह मोटी तोंद वाला धनाढ्य सेठ बनता है तो कभी उसके आश्रित नौकर बनता है। कभी तत्त्ववेत्ता का स्वांग रचता है तो कभी मूर्ख या विदूषक का पार्ट अदा करता है। परन्तु इन सबका अभिनय करने वाला समझता है कि यह सब तो अल्पक्षणों का प्रदर्शन है । मुझे दिशानिर्देशक के निर्देशानुसार ही ये विविध पार्ट अदा करने पड़ते हैं। इसी प्रकार भेदविज्ञान की दृष्टि वाला निश्चयसम्यग्दर्शनी आत्मानुभूतिजन्य प्रतीति के कारण सोचता है कि मैं भी संसाररूपी नाट्यशाला के रंगमंच पर कर्म-परवश होकर नाना पार्ट अदा कर रहा हूँ। वास्तव में से सब अभिनय क्षणिक हैं, मेरे असली रूप नहीं हैं । उसे यह निश्चित भान रहता है कि कर्मपरवश होकर मुझे ये सब अभिनय करने पड़ते हैं, मेरा स्वभाव या असली व्यक्तित्व इन सबसे भिन्न है। शरीर और मन से सम्बन्धित ये सब बाह्य पर्याय कर्मजनित हैं, अपने (आत्मा) से भिन्न हैं। इन सबके प्रति उसे अन्तर् से ममत्व नहीं होता।
निष्कर्ष यह है कि जिसे आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्रतीति, अनुभूति या रुचि सुदृढ़ हो जाती है, वह पर पदार्थों पर रागादि नहीं करता, इन्द्रियों के भौतिक विषय-सुखों में लुब्ध नहीं होता, उसे मनोऽनुकूल या प्रतिकूल वस्तुओं या परिस्थिति के प्रति राग-द्वेष, मोह, घृणा, आदि नहीं होती। इसीलिए जिन सूत्र में कहा गया है
“अप्पा अप्पम्मि ओ, समाइट्ठी हदइ फुडुजीवो।" ।
आत्मा का शुद्ध आत्मा में रत-लीन होना ही जीव का स्पष्टतः (निश्चय) सम्यग्दृष्टि हो जाना है। अतएव निश्चयसम्यग्दर्शन जिसमें आ जाता है, वह पर-पदार्थों के प्रति रुचि का त्याग करके, उसकी अपनी आत्मा में रुचि दृढ़ हो जाती है । आत्मतत्व को ही वह उपादेय मानता है । आत्मा के निज गणों और शक्तियों पर उसका विश्वास सुदृढ़ हो जाता है। यही क् सम्यश्रद्धा का निश्चय स्वरूप है ।
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