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________________ सम्यक श्रद्धा का निश्चय स्वरूप | ६१ पूर्वबद्ध कर्मानुसार उसे सुख-दुःख, सम्पत्ति - विपत्ति सम्मान-अपमान, तंगी या समृद्धि प्राप्त होती है, परन्तु उसको यह पक्की अनुभूति हो जाती है कि स्वयं (आत्मा) इन सबसे अस्पृष्ट है, असम्बद्ध है । इस कारण वह इन उतार-चढ़ाव की घटनाओं और परिवर्तनों में से साक्षीभाव से पार होना पसन्द करता है । शहर के बाजार में अनेक दूकानों में शो-केसों में तरहतरह का माल सजा हुआ है, जिसे कुछ भी खरीदना न हो वह उन दूकानों में सजे हुए माल पर लक्ष्य न देकर जैसे उन्हें पार कर जाता है, वैसे ही आत्मानुभूति वाला सम्यग्ज्ञाता द्रष्टा, उन उन घटनाओं या परिस्थितियों को भी सिर्फ साक्षीभाव से पार कर जाता है । उसे इनसे कुछ लेना-देना नहीं होता, वह आत्मतृप्त होता है । मृग मरीचिका को जलरहित जानने वाला व्यक्ति प्यास बुझाने के लिए उसकी ओर नहीं दौड़ता तथा इस पानी को तैर करके कैसे पार किया जाएगा ? इस बात की भी चिन्ता नहीं करता । हाई-वे रोड पर कार तेजी से दौड़ती जा रही हो, उस समय सामने पानी की लहरें मस्तक तक ऊँची दिखाई दें तो, वह हिचकिचाहट अनुभव नहीं करता, वह मोटर को पूर्ववत् पूरे वेग से दौड़ाता हुआ इसके बीच से ले जाता है; क्योंकि वह उस प्रदेश से परिचित है कि यह पानी तो मृगमरीचिका के कारण दिखाई दे रहा है | ऐसी ही स्थिति आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टि मानव की होती है । भौतिक सुखसुविधाओं के उतार-चढ़ाव में वह बहुधा स्थितप्रज्ञ रहकर अपने आध्यात्मिक जीवन की गाड़ी को तेजी से पार कर लेता है । इसमें उसे कुछ खोने की भीति या प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं होती । उसकी एकमात्र इच्छा स्वस्वरूप में स्थिर रहने की होती है । हाँ, चारित्रमोहनीय से विवश होकर विषयोपभोग को सर्वथा छोड़ नहीं सकता, किन्तु उसमें उसकी आसक्ति या ममता - मूर्च्छा नहीं होती । चित्त में उठती वृत्तियों की लहरों को उपशान्त करके वह स्वभाव में अधिक से अधिक स्थित रहने का प्रयत्न करता है । सचमुच, आत्मानुभूति की सुदृढ़ नींव पर जिसके जीवन का निर्माण होता है, वह अविनाशी अनन्तज्ञानादि चतुष्टय सम्पन्न परमात्मा के शान्त सहवास का सतत अनुभव करता है, इस कारण उसे सुरक्षितता का अखण्ड अनुभव होता है | कई बार उसके चित्त की सतह पर विक्षोभ की क्षणिक लहर उठती दिखाई देती है, परन्तु उसका अन्तस्तल तो निर्भय, निराकुल, निरीह और निःस्पृह ही रहता है । विशुद्ध चेतना के साथ ऐक्य की प्रतीति उसे अन्तर् में निराकुलता की शान्ति का सतत अनुभूति कराती रहती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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