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सम्यक्त्रद्धा का निश्चय-स्वरूप | ८६ ताओं के अवसर पर टिकी रहनी अत्यन्त कठिन होती हैं, उस समय चित्त अस्वस्थ, कलुषित और असमाधियुक्त हो जाता है, श्रद्धा का टिमटिमाता दीपक बुझने लगता है।
अगर हम अपनी चित्तवृत्तियों का निरीक्षण करें तो प्रतीत होगा कि अविकारी, ज्ञायक, शुद्ध आत्मस्वरूप के साथ अपने तादात्म्य का भान जागृत होता है, तब बाहर की घटनाओं, बनावों या परिस्थितियों आदि का हमारे चित्त पर गहरे आघात-प्रत्याघात नहीं होते, परन्तु जब हम इस देह और कर्मकृत व्यक्तित्व के साथ ऐक्य का अनुभव करते हैं, तब चित्त में संक्लेश, चिन्ता, दीनता, मद, तृष्णा आदि खुलकर खेलने लगते हैं। तात्पर्य यह है कि निज के शुद्ध, ज्ञायकस्वरूप की प्रतीति जितनी-जितनी दृढ़ होती जाती है, उतने-उतने संक्लेश, दैन्य, चिन्ता, तृष्णा, मद कम होते जाते हैं। स्वरूप की विस्मृति होते ही चित्त में मोहजनित वृत्तियाँ उमड़-घुमड़ कर आ जाती हैं, ऐसी स्थिति में वहाँ देहात्मबुद्धि, अहंकार, ममकार और कर्तृत्वाभिमान आदि का बोलवाला हो जाता है।
स्वरूप के साथ अपने तादात्म्य का भान जब आत्मानुभूति द्वारा अवचेतन मन तक पहुँच जाता है, तब स्वप्न में भी उस बोध की विस्मृति नहीं होती; इसलिए श्रुत (शास्त्र) और चिन्तन से कृतार्थता न मानकर अनुभूति को तत्त्व-प्राप्ति का तृतीय और अन्तिम उपाय बताया है ।
फिर स्व-पर-भेदविज्ञान की आत्मानुभूति का सत्य अपना स्वयं का होता है, वाचन, श्रवण, चिन्तनादि से प्राप्त सत्य परकीय है, उधार लिया हुआ है, अपनी बुद्धि पर पड़ी हुई अन्य को प्राप्त बोध को परछाई है। परछाई कितना काम कर सकती है ? जिसे अनुभूतिरूप निश्चयसम्यग्दर्शन का साक्षात् नहीं होता, उत्तेजना के क्षणों में या संकटापन्न परिस्थिति में उसकी प्रतिक्रिया कर्मकृत व्यक्तित्व के साथ तादात्म्य की बोधपूर्वक भूमिका -भौतिक भूमिका के अनुरूप ही रहती है। इससे ऊपर उठना हो तो आत्मानुभूति के परिप्रेक्ष्य में विचार और तदनुरूप यथाशक्य आचरण करना चाहिए।
निश्चयसम्यग्दर्शनी का जीवनदर्शन सामान्यरूप से मानव प्रायः अपने माने हुए परिवार, सम्प्रदाय, जाति, पैसा, पद, प्रतिष्ठा, बौद्धिक कुशलता, शारीरिक स्वास्थ्य आदि बातों को जीवन के आधार मानकर चलता है। परन्तु वास्तविकता यह है कि ये सब विनाशशील हैं, क्षणिक हैं। किस क्षण ये सब धराशायो हो
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