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८८ | सद्धा परम दुल्लहा आत्मा है, उसी को देव, तथा आचार्य, उपाध्याय और साधु में विराजमान जो शुद्ध आत्मा है, उसे ही शुद्ध गुरु मानता है, एवं रत्नत्रय में रत्नत्रयमयी अभिन्न स्वानुभूति को ही शुद्ध धर्म मानता है। उसे ऐसी दृढ़ प्रतीति हो जाती है, कि मेरा शुद्ध स्वरूप अनन्तज्ञानदर्शन-शक्ति-सुखमय है। स्वभाव में रमण ही मोक्ष का हेतु है। परभाव-राग-द्वेषादि ही कर्मबन्ध का हेतु है । अतः स्व-पर-भाव के भेद-विज्ञान की प्रतीति हो जाने से व्यक्ति आत्मकेन्द्रित हो जाता है।
स्वानुभूति-रहित जीव सदैव शरीर और अपने कर्मकृत व्यक्तित्व के साथ अपने (आत्मा के) तादात्म्य (एकत्व) का अनुभव करते हैं, जबकि स्वानुभूति होने के पश्चात भेदज्ञान की जागृति वाले व्यक्ति को ऐसी प्रतीति रहा करती है कि ये शरीरादि (शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव निर्जीव पदार्थ) 'मैं' नहीं हूँ। खाते-पीते,सोते-उठते, चलते-फिरते यानी मनवचन-काया से प्रत्येक प्रवृत्ति करते समय भी निश्चयसम्यग्दर्शनयुक्त व्यक्ति की दृष्टि-वृत्ति स्व-स्वरूप की ओर ही रहती है। अन्य प्रवृत्तियों की भीड़ के बीच में भी शाश्वत आत्मतत्व के साथ अपने तादात्म्य की स्मृति चित्त में झलकती रहती है।
स्वरूप के साथ अपने तादात्म्य का भान आत्मानुभूति द्वारा अवचेतन मन तक पहुँचता है, तब स्वप्न में भी आत्म-बोध की विस्मृति नहीं होती। जबकि विपत्ति, तंगी और चिन्ता के प्रसंगों में केवल गुरु-उपदेश और शास्त्रीय ज्ञान के बल से चित्त संकल्प-विकल्प अथवा भय से अनाकान्त नहीं रह सकता । ऐसे मौके पर सारी बौद्धिक समझ एक ओर धरी रह जाती है और चित्त भयविह्वल, आकुल-व्याकुल, स्तब्ध या कलुषित हो जाता है, असमाधिभाव मन में आ जाता है। कारण यह है कि व्यक्ति की बौद्धिक भूमिका द्वारा प्राप्त समझ सिर्फ जागृत मन तक की होती है। परन्तु इस देह और कर्मकृत व्यक्तित्व के साथ वर्षों तक सतत् एक्य का भान करते रहने से तथा जागृत मन की उस वस्तु को बार-बार घोंटने से वह अवचेतन मन (Subconscious mind) में पहँच चुकती है। जिससे अवचेतन मन में विपत्ति, संकट, तंगी, चिन्ता, दैन्य, मद, तृष्णा, आर्तरौद्रध्यान आदि के संस्कार निमित्त मिलते ही उभर आते हैं। और तब जागृत मन के नियंत्रणों को एक ओर फेंककर अवचेतन मन के वे संस्कार सहसा प्रकट हो जाते हैं । अनुभव की आँखों से देखें तो बाह्य अनुकुलताओं के अवसर पर जो बातें मानस में ठीक जम गई प्रतीत होती हैं, वे ही बातें बाह्य प्रतिकूल.
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