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________________ सम्यश्रद्धा का निश्चय-स्वरूप | ८७ की यह प्रवृत्ति उसके लिए निर्जरा रूप धर्म बनती है। क्योंकि अन्तर से वह इन सबसे स्व (आत्मा) को पृथक् समझता है।। जिसे आत्मा की साक्षात् अनुभूति, या देह और आत्मा के भेदज्ञान की प्रतीति अथवा जागृति हो जाती है, वह इस पौद्गलिक देह या रागादि कर्मकृत व्यक्तित्व, अर्थात्-कर्मों से होने वाले विविध क्षणिक परिवर्तनशील पर्यायों को आत्मीय (आत्मगत) समझने को प्राथमिक अन्धकारपूर्ण भूमिका से निकल जाता है। वह नामरूप, तथा कर्मकृत व्यक्तित्व से ऊपर उठकर शाश्वत ज्ञानानन्दमय, निराकार, शुद्ध आत्मा के अखण्ड प्रकाश को चमकता हुआ देखता है । वह शुद्ध आत्मा में ही परमात्मा के दर्शन करने लगता है । अतः रागादि विकल्परहित शुद्ध आत्मस्वरूप को प्रत्यक्ष अनुभूति या जागृति को ही बृहद्रव्यसंग्रह में, निश्चय सम्यग्दर्शन बताया गया है। __ रागादि-विकल्पोपाधि-रहित-चिच्चमत्कार - भावोत्पन्न - मधुररसास्वाद-सुखोऽहमिति निश्चयरूप सम्यग्दर्शनम् ।। निश्चयरूप सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर व्यक्ति सदैव जागृत तथा प्रतीतियुक्त रहता है कि मैं रागादि विकल्पों तथा कर्मकृत देहादि उपाधियों से रहित, शुद्ध चित् (ज्ञानरूप चैतन्य) के चमत्कारभावों से उत्पन्न मधुररसास्वाद-सुख से युक्त (आत्मा) हूँ, इस प्रकार की जागृति एवं प्रतीतियुक्त आत्मानुभूति होना ही निश्चयसम्यग्दर्शन है। शुद्ध आत्मा की ऐसी अनुभूति किसी भी उपाधि, उपचार या कर्मकृत विकल्पों या पर्यायों से रहित होती है। इसलिए निश्चयसम्यग्दर्शन एक ही प्रकार का है, उसका कोई भेद नहीं है। निश्चयसम्यग्दर्शन की जब प्रबलता होती है, तब अपनी ही विशुद्ध आत्मा को वह देव, उसी को गुरु और उसी की स्वाभाविक परिणति को धर्म समझता है । बाहर के देव, गुरु, धर्म अथवा शास्त्र तो निमित्त मात्र हैं—विशुद्ध आत्मा के, या भेदविज्ञान के निमित्त हैं, वह उपादान नहीं, मूल स्वभाव नहीं । अतः निश्चयदृष्टि से शुद्ध आत्मा को ही देव, गुरु, धर्म या शास्त्र समझना सम्यग्दर्शन है । समयसार में यही लक्षण दिया गया है। ____ अथवा अरहन्त और सिद्ध में जो ज्ञानादि चतुष्टयमय विशुद्ध १ बृहद-द्रव्य-संग्रह टीका ४०/१६३/१० २ विशुद्ध ज्ञान-दर्शन-स्वभावे निज परमात्मनिवद् रुविरूपं तत् सम्यग्दर्शनम् ।" -समयसार २/८/१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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