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________________ ८६ | सद्धा परम दुल्लहा प्राप्त स्व (आत्मा) और पर का भेद-ज्ञान चाहे जितना गहरा हो जाए तो भी वह बौद्धिक स्तर का होने से वह स्व-पर-भेद की दृढ़ प्रतीति उत्पन्न नहीं कर सकता, जिससे कि सघन रागद्वेष की ग्रन्थि टूट सके । इसलिए स्व-पर के भेद का, अर्थात्-शरीर और आत्मा की भिन्नता का साक्षात्कार कराने वाली अनुभूति को परमार्थ सम्यग्दर्शन का लक्षण बताया गया है । तात्पर्य यह है कि काया से आत्मा को पृथक् अनुभव करने वाली दृष्टि ही निश्चयसम्यग्दर्शन है । इसलिए भव-भ्रमण को मर्यादित करने वाले निश्चयसम्यगदर्शन के इच्छुक को केवल सुदेव सुगुरु-सुधर्म के प्रति श्रद्धान् से या श्रवणमनन-युक्ति-तर्क से प्राप्य तत्त्वार्थ के ज्ञान और श्रदान से ही संतोष मानकर नहीं बैठ जाना चाहिए, अपितु स्व और पर की यथार्थ प्रतीति, यानी भेदज्ञान कराने वाली साक्षात् अनुभूति को अपनी साधना का लक्ष्य बनाना चाहिए। स्व-पर-भेद विज्ञान की अनुभूति होने पर शरीर और मन तक के कर्म जनित सर्व बाह्य पर्यायों को वह अपने (आत्मा) से पृथक् समझता है, इस कारण उसके अन्तर में उनके प्रति ममत्व नहीं होता। यद्यपि चारित्रमोहनीय के उदयवश वह बाह्य विषयोपभोग आदि में प्रवृत्त दिखाई देता है, तथापि उसके अन्तर् की गहराई में अनिवार्य विषयोपभोगों के प्रति भी आनन्द न होकर पश्चात्ताप, वितृष्णा, अनिच्छा आदि होते हैं। उसे व्यक्तअव्यक्त रूप से यह भान रहता है कि ये देहादि सब कर्मजनित हैं, क्षणिक हैं, मेरे से पृथक् हैं, मैं परभाव में लाचारी से प्रवृत्त हो रहा है । अतः उस का मन विषयोपभोग में या अन्य व्यावहारिक प्रवृत्तियों में तीव्र रसपूर्वक प्रवृत्त नहीं होता, साथ ही इन प्रवृत्तियों में उसकी प्रायः गाढ कर्तृत्वभोक्तृत्व-बुद्धि नहीं रहती। आत्मानुभूतिरूप निश्चय-सम्यग्दृष्टि प्राप्त होने पर व्यक्ति, भगवद्गीता में उक्त निष्काम कर्मवत् साक्षीभाव का अभ्यास भी सहज रूप से करता है। पंचसूत्र में श्रावक धर्म के आचार का निरूपण करते हुए कहा गया है कि वह निर्ममत्वभाव से, साक्षीभाव से, कुटुम्बीजनों के हित और सुख को दृष्टि से परिवार का पालन-पोषण करता है, और कुटुम्ब-पालन १ (क) निमम्मे भावेण, तप्पालणे वि धम्मो, जह अन्नपालणेत्ति। ........ममत्त बंध कारणम् । ---श्रीपंच सूत्र , सूत्र २ (ख) भिन्नग्रन्थेः कुटुम्बचिन्तनादिको व्यापारोऽपियोगो निर्जराफलश्च । __- योगविन्दु टीका २०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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