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________________ सम्यक् श्रद्धा का निश्चय -स्वरूप | ८५ सूक्ष्म प्रज्ञाशील विवेकी व्यक्ति आत्मतत्व की जो प्रतीति करते हैं, उसे लक्ष्य में लेकर ही व्यवहार - सम्यग्दर्शन का तत्वार्थ श्रद्धानरूप लक्षण किया गया है । परन्तु परिपक्व सम्यग्दर्शन के लिए आप्तवचन पर श्रद्धा और युक्ति एवं तर्क द्वारा आत्मा और पर के भेदविज्ञान की बौद्धिक प्रतीति पर्याप्त नहीं है । सम्यक् श्रद्धा का व्यावहारिक आधार भले ही आप्तवचन और बौद्धिक प्रतीति हो, किन्तु निश्चयरूप आधार तो अनुभूति ही है । बौद्धिक स्तर का भेद - विज्ञान आत्मा की ऐसी दृढ़ प्रतीति नहीं पैदा कर सकता, जिससे राग-द्व ेष की निविड़ ग्रन्थि टूट जाए । इसीलिए निश्चयसम्यग्दर्शन का स्पष्ट लक्षण किया गया है'स्व-परयोविभाग- दर्शनम् ।' अर्थात् - स्व और पर की पृथक्ता का दर्शन निश्चयसम्यग्दर्शन है | इसका एक रहस्य यह है कि पूर्वोक्त नौ या सात तत्वों में से हेय तत्वों को 'पर' में और उपादेय तत्वों को 'स्व' में समाविष्ट कर लिया गया है । जैसे— 'स्व' अर्थात् 'मैं' जीव ( आत्मा ) हूँ । इसके आश्रय से उत्पन्न होने वाले अजीव, आस्रव (पुण्य-पाप) और बन्ध को परभाव समझकर छोड़ना तथा जीव, संवर, निर्जरा और मोक्ष को स्वभाव समझकर ग्रहण करना, यही स्व-पर भेद-दर्शन है । मोक्ष आत्मा (जीव ) के स्वभाव के पूर्ण विकास को अवस्था है, तथा संवर और निर्जरा से प्राप्त होने वाली शांति उसका ( जीव का ) अपना स्वभाव है । दूसरी दृष्टि से 'पर' में स्वबुद्धि और 'स्व' में परबुद्धि का रहना ही बन्धन है । जबकि 'स्व' में स्वबुद्धि और 'पर' में पर-बुद्धि का रहना ही विज्ञान की भूमिका है । अतः 'मैं आत्मा हूँ' । ' शरीरादि पर भाव हैं । मैं इनसे पृथक हूँ ।' इस प्रकार की स्व-पर-भेदविज्ञान की स्वानुभूतिजन्य प्रतीति ही निश्चयसम्यग्दर्शन है । यद्यपि तत्त्व प्राप्ति में देवादि पर श्रद्धा और तत्वभूत पदार्थों की बौद्धिक प्रतीति की अपेक्षा अनुभूति का मूल्य सर्वाधिक है, तथापि यह भूलना नहीं चाहिए कि यदि वह अनुभूति आप्तवचनों पर श्रद्धा और प्रतीति से निरपेक्ष बन जाए तो उसमें भ्रांति की सम्भावना है । निष्कर्ष यह है कि आप्तवचनों पर श्रद्धा तत्वार्थ प्रतोति और स्वानुभूति, इन तीनों के समन्वय से विशुद्ध तत्वप्राप्ति होती है । दूसरी बात यह है कि आप्त वचनों पर श्रद्धा और तर्क युक्ति द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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