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________________ ८४ | सद्धा परम दुल्लहा शास्त्र के प्रति श्रद्धान न हो, क्योंकि परम्परा से ये सभी तत्वभूत पदार्थ या श्रद्धेय तत्व एक या दूसरे प्रकार से आत्म-प्रतीति या आत्मानभति के कारण हैं। देवादि पर श्रद्धान हुए बिना, इनके द्वारा प्रज्ञप्त सात या नौ तत्वभत पदार्थों पर श्रद्धान नहीं हो सकता । और इनके द्वारा प्रज्ञप्त तत्वभूत पदार्थों पर श्रद्धान नहीं होता, तब तक उत्तरोत्तर आत्मतत्व के प्रति रुचि, श्रद्धा, प्रतीति, अनुभूति या विनिश्चिति नहीं हो सकती। वास्तव में देखा जाए तो व्यवहार-सम्यग्दर्शन का मुख्य उद्देश्य तो निश्चय-सम्यग्दर्शन तक पहुँचना है, क्योंकि तत्वभूत पदार्थों के अथवा देवगरु-धर्म-शास्त्र आदि के ज्ञान या श्रद्धान का लक्ष्य तो आत्मश्रद्धान, आत्मज्ञान या आत्मप्रतोति ही है। जब व्यवहार-सम्यग्दर्शन-सम्पन्न व्यक्ति अपनी साधना का लक्ष्य निश्चय-सम्यग्दर्शन की प्राप्ति यानी भेदज्ञान कराने वाली साक्षात् अनभूति को बना लेता है, तब उसमें राग क्रमशः कम होता जाता है, और वह व्यवहार से निश्चय की ओर उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। निश्चय की प्रबलता होने पर सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय भी व्यवहार से निश्चय का रूप ले लेते हैं । इसका यह अर्थ नहीं है कि चतुर्थ आदि गुणस्थानों में जो सम्यग्दर्शन होता है, उसमें आत्मस्वरूप की अनुभूति, आत्मविनिश्चिति या आत्मप्रतीति कतई नहीं होती, वहाँ भी आंशिकरूप में यह सब रहता ही है, अन्यथा उसे सम्यग्दर्शन ही कैसे कहा जायेगा? व्यवहारसम्यग्दर्शन से निश्चय-सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने की अनिवार्यता बताते हए कहा गया है कि तत्व-प्राप्ति के मुख्यतया तीन मार्ग हैं-(१) जिनोक्त आगम, (२) युक्ति और (३) अनुभूति । प्रारम्भिक भूमिका में मुमुक्षु मुख्यतया आप्तादि के मार्गदर्शन पर निर्भर रहता है, किन्तु तत्व प्राप्ति की दिशा में गति-प्रगति करते समय आगे चलकर वह केवल आप्तादि के प्रति श्रद्धा को लेकर नहीं चलता, अपितु स्वयं शास्त्र, तर्क और युक्ति का आश्रय लेकर तत्व-मन्थन करता है। वह आत्मा, जीव-अजीव, आस्रव (कर्म), बन्ध, भोक्ष और उसके उपायभूत संवर और निर्जरा आदि का रहस्य पाने हेतु शास्त्र, गुरु-उपदेश आदि के माध्यम से चिन्तन-मनन करता है । मोक्षमार्ग में साधकबाधक अनेक प्रश्नों पर वह आगमों का परिशीलन एवं तत्व-चिन्तन करता है। इस प्रकार क्रमशः आत्मतत्व की विशद प्रतीति प्राप्त करता जाता है । वीतराग वचनों को मद्देनजर रखकर चिन्तन-मनन एवं युक्ति द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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