________________
सम्यक्श्रद्धा का निश्चय-स्वरूप | ८३ कारण हैं । इनके द्वारा ही क्रमशः आत्मस्वरूप को अनुभूति को भूमिका निर्मित होती है जिससे अन्त में स्वानुभूतिरूप सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है । मुमुक्ष को पूर्णज्ञानी आप्त वीतराग पुरुषों के वचन पर दृढ़ विश्वास रखे बिना प्राथमिक भूमिका में इनके द्वारा बताये गए तत्वों पर श्रद्धान नहीं हो सकता । और जिनोक्त तत्वों पर श्रद्धान-निश्चय हए बिना आत्मस्वरूप का अनुभव, निश्चय एवं आत्माभिमुखत्व सम्भव नहीं है । अतः प्रारम्भिक भूमिका में वीतराग अर्हत् आप्त पुरुष का अवलम्बन, आत्मज्ञानी गुरुओं का मार्गदर्शन और जिनोक्त धर्म या जिनाज्ञा की आराधना को रुचि से व्यवहारसम्यक्त्व द्वारा अल्पज्ञ मुग्धजोव भो क्रमशः सच्चे साधनामार्ग पर गति करके मोह की गिरफ्त से क्रमशः निकल कर उत्तरोत्तर आत्मज्ञान का अधिकाधिक प्रकाश प्राप्त कर लेता है। जब वह निश्चयसम्यग्दर्शन में निरालम्बनपूर्वक रहने में समर्थ हो जाता है, तब व्यवहारसम्यग्दर्शन स्वयमेव छूट जाता है। किन्तु प्रारम्भ में व्यवहार का अवलम्बन लिये बिना निश्चय की सिद्धि सम्भव नहीं। इसलिए पंचास्तिकाय में व्यवहारसम्यक्त्व को निश्चयसम्यक्त्व का बीज बताया है
'तेषां मिथ्यादर्शनोदयापादिताऽश्रद्धाना भावस्वभावं भावान्तरं श्रद्धानं सम्यग्दर्शन, शुद्ध चैतन्यरूपात्मतत्वविनिश्चयबीजम् ।”
अर्थात्-उन भावों (तत्वभूत नौ पदार्थों) का, मिथ्यात्व के उदय से प्राप्त अश्रद्धान के अभावस्वभावरूप भावान्तर यानी तत्वभूत नौ पदार्थों पर श्रद्धान (व्यवहार) सम्यग्दर्शन है, जो कि शुद्ध चैतन्यरूप आत्मतत्व का विनिश्चय (निश्चय-सम्यग्दर्शन) का बीज है ।"
अतः निश्चय-सम्यग्दर्शन साध्य है, तो व्यवहार-सम्यग्दर्शन उसे प्राप्त करने का साधन है, निमित्त है। इसलिए कारण (व्यवहार सम्यगदर्शन) में कार्य का उपचार करके देव-गुरु-धर्म-श्रद्धान अथवा तत्वार्थश्रद्धान को व्यवहार से सम्यग्दर्शन कहा है । इसोलिए प्रारम्भिक भूमिका के अल्पबुद्धि लोगों को समझाने के लिए पहले व्यवहारसम्यग्दर्शन का उपदेश देकर उसके साथ-साथ निश्चयसम्यग्दर्शन की प्रतोति कराई जाती है। इस दृष्टि से व्यवहारसम्यग्दर्शन को निश्च यसम्यग्दर्शन का कारण बताया जाता है।
___ तात्पर्य यह है कि आत्मस्वरूप को अनुभूति या विनिश्चिति तब तक नहीं हो पाती, जब तक आत्मा और कर्मों के सम्बन्ध से जो सात तत्व बनते हैं, उनके प्रति तथा उनके उपदेशक एवं मार्गदर्शक देव, गुरु, धर्म या
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org