________________
परमधन
६६
वहां पारसमणि पड़ा था। ब्राह्मण का रोम-रोम नाच उठा। उसने अपने हाथ में की लट्टी के किनारे जो लोहा लगा था, उसे छुआ, वह सोने की भांति चमक उठा। आनन्द विभोर ब्राह्मण आकाश की ओर देखकर नाचनाच उठा।
दूसरे ही क्षण दरिद्र ब्राह्मण के हृदय में एक प्रकाश किरण फूट पड़ी, जैसे घने अंधकार में बिजली चमक उठी हो । भाव देखा न ताव, मणि को उठाकर यमुना में फेंका और तपस्वी के चरणों में पहुचा । “करुणामय ! मुझे भी अब वह अमितधन दीजिए जिसे पाकर आपने पारस मणि को पत्थर की तरह तुच्छ समझा !"
संत के मुख से तीन अक्षरों का एक छोटा सा शब्द निकला-"संतोष !"
ब्राह्मण संत का सरस वाणी पर चिन्तन लीन हो गया। उसको चेतना में एक ध्वनि गूज उठी
"जब आवत संतोष धन सब धन धूलि समान !' .
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org