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सच्चा हाष्ट
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शरीर अनित्य है, अशुद्धि से उत्पन्न हुआ है, अशुचिमयहाड-मांस का ढाँचा मात्र देखता है। यही तो आत्मसाधक की सच्ची दृष्टि है, जो सौन्दर्य के कृत्रिम आवरणों की परतों को भेद कर अन्तःस्थित वास्तविकता को देखती है।
लंका का अनुराधपुर बौद्ध धर्म का केन्द्र रहा है। नगर की सीमा के बाहर एक टीला है जिसे चैत्य पर्वत (ज्ञानशिखर) कहा जाता है। महान अध्यात्मसाधक स्थविर महातिष्य उसी टीले पर अपनी साधना किया करते थे। एकबार महातिष्य नगर में भिक्षा के लिए जा रहे थे। एक यौवन मदिरा पी हुई कुलवधू पति से झगड़कर मायके जाती हुई मार्ग में सामने आ गई। स्थविर की तेजोदीप्त मुखमुद्रा चन्द्रकांत मणि की भांति चमक रही थी। कुलवधू वहीं ठिठक कर भिक्ष को देखने लगी, और फिर कामोद्दीपक मधुर हास्य बिखेरने लगी । स्त्री के हंसने पर भिक्ष की दृष्टि उसके दांतों पर पड़ गई। आत्मचिंतन में लीन भिक्ष दांतों की हड्डियों की असारता पर चिन्तन करते-करते वहीं बोधि (अर्हत्व) प्राप्त हो गए।
उस स्त्री का पति, पीछे से दौड़ा-दौड़ा पत्नी की खोज करता-करता उधर आया। भिक्ष को आते देख कर उसने पूछा-"भंते ! इस मार्ग पर अभी सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत किसी सुन्दरी स्त्री को जाते देखा है आपने ?"
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