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अपना मार्ग खुद देखो
मानव स्वभाव की एक सहज दुर्बलता है-वह दूसरों के लिए सोचता है, दूसरों के लिए लिखता है और दूसरों के लिए ही जीता है। उसके समस्त ज्ञान-विज्ञान का ध्र व है-पर-दर्शन, पर-रंजन ।
मानव ज्ञान-विज्ञान की दिशा में आज उच्च शिखर पर पहुंच रहा है, उस ज्ञान से जगत में आलोक बिखेरना चाहता है, किंतु अपने जीवन के पथ में कितना अंधकार गहरारहा है, इसका उसे पता तक नहीं । दूसरों को मार्ग दिखाता हुआ स्वयं गड्ढे में गिर पड़ता है। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा है-'संपिक्खए अप्पगमप्पएणं' अपने ज्ञान चक्ष ओं को खोलकर पहले अपना ही मार्ग देखो।"
एक खगोलशास्त्री महोदय रात के झिलमिल प्रकाश में कहीं जा रहे थे। आकाश में तारे चमक रहे थे, खगोलशास्त्री चलते-चलते ही कल्पना के फीते से उनकी दूरी
दशवकालिक चू० २
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