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________________ अनुश्र त श्र तियाँ लोकों के उपकार के लिए अपनी संपत्ति का वितरण एवं समत्त्वभाव का आदर्श सूर्य से सीखा है। मेरे सातवें गुरु का नाम है-चन्द्रमा ! चन्द्रमा की कलाए प्रतिमास घटती-बढ़ती रहती है, फिर भी वह अपनी सहज शीतलता का त्याग नहीं करता। सुख-दुःख में भी अपने सद्गुण को नहीं त्यागने की शिक्षा मैंने चन्द्रमा से ली है। मेरे आठवें गुरु हैं-समुद्र। वर्षा ऋतु में असंख्यअसंख्य नदियों के जल से पूरित होकर भी समुद्र कभी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता । और भयंकर ग्रीष्म ऋतु में सूखता भी नहीं । सत्पुरुष को वैभव पाकर न फूलना चाहिए और न दुर्दिन के कारण क्ष ब्ध ही होना चाहिए । यह मानसिक संतुलन की शिक्षा मैंने समुद्र से ली है। मेरा नौवां गुरु है-भ्रमर ! भ्रमर विभिन्न पुष्पों से रस ग्रहण करता रहता है, उसी प्रकार बुद्धिमान पुरुष को संसार में सर्वत्र गुण-दृष्टि रखनी चाहिए। यह सारग्राहिता की शिक्षा मैंने भ्रमर से ली है।' मेरा दसवां गुरु है-बालक ! बालक जिस प्रकार सर्वत्र निःशंक होकर सरल भाव से विचरण करता है सबसे स्नेह • करता है, वैसे ही द्वेष, मात्सर्य आदि १ तुलना- महुगारसमा बुद्धा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003185
Book TitleKhilti Kaliya Muskurate Ful
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1970
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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