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दस गुरु वायु, तेज आदि से व्याप्त होकर भी उनसे पृथक रहता है, वैसे ही आत्मा-शारीरिक गुण-धर्मों से संयुक्त होकर भी अपने को उनसे पृथक रखे--यह सीख मैंने आकाश से ली है।'
मेरे चौथे गुरु हैं-जल ! जल स्वभावतः स्वच्छ व शुद्ध होता है। मिट्टी आदि के संयोग से गंदला हो जाता है, किंतु प्रयत्न से पुन: अपने स्वच्छ रूप में आ जाता है । तथा अपनी रसमयता से समस्त वनस्पतियों एवं प्राणियों को जीवनदान करता है, वैसे ही मनुष्य को स्वभावतः स्वच्छ एवं स्नेहशील होना चाहिए।
मेरे पांचवे गुरु का नाम है-अग्नि ! अग्नि की तेजस्विता के कारण कोई उसका स्पर्श नहीं कर सकता। वह अन्न को पकाती है, शरीर को गर्म रखती है । आप उसे जो कुछ भी दे दीजिए, वह संतोष पूर्वक अपने उदर में डाल लेती है । न किसी से दुष, न किसी से स्नेह । सत्पुरुष को भी सदा समरूप, तेजस्वी, निर्मत्सर और वीतराग होना चाहिए।
मेरे छठे गुरु हैं-सूर्य ! सूर्य समस्त पृथ्वी को बिना किसी भेद भाव के प्रकाश देता है । किरणों से आकृष्ट जल को, पुनः समय पर पृथ्वी को वितरित कर देता है । मैंने
१ तुलना-गगणमिवनिरालंबे । २ तुलना-- सारदसलिलमिव सुद्धहियया ।
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