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अनुश्रु त श्र तियाँ 'राजन् ! मेरे गुरुओं ने मुझे ऐसी ही महान् शिक्षाए दी हैं, जिनसे मेरी विवेक बुद्धि सदा जागृत एवं निर्मल रहती हैं'-ऋषि ने गंभीरता पूर्वक उत्तर दिया।
"महाराज ! वे गुरुराज कौन हैं ? क्या मुझे उन गुरुओं, एवं उनकी दिव्य शिक्षाओं का मर्म जानने का सौभाग्य प्राप्त हो सकता है ?"- राजा ने विनयपूर्वक पूछा। ____ "हां, अवश्य !" ऋषि ने प्रसन्नता पूर्वक कहा“सुनिए ! मेरे प्रथम गुरु का नाम है पृथ्वी ! उसने मुझे दैविक, भौतिक समस्त विपत्तियों के आघात-उत्पात सहकर सतत अविचल रहने की शिक्षा दी है।"
मेरे दूसरे गुरु का नाम है-वायु ! वायु के दो रूप हैं—प्राणवायु और बाह्यवायु ! प्राणवायु, रूप, रस, गंध आदि की वासना से अलिप्त रहकर केवल आहार मात्र ग्रहण करता है। उसी तरह सत्पुरुष को मित आहार से संतुष्ट रहना चाहिए।
बाह्य वायु सर्वत्र विचरती हुई भी शुद्ध, अविकृत रहती है। आत्मज्ञानी को भी सांसारिक वासनाओं से अलिप्त रहकर अपना कर्म करते रहना चाहिए।
मेरे तीसरे गुरु का नाम है, आकाश ! आकाश, जल,
१ तुलना करो-'पुढवी समो मुणि हवेज्जा'-मुनि पृथ्वी के
तुल्य धैर्यव्रती बनें।
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