________________
२४६
जीवन स्फूर्तियाँ के आंसू फूलों की तरह चादर पर बिखर गये।"
सम्राट कुमारपाल ने आचार्य के स्वागत को जोरदार तैयारियाँ की, और स्वयं स्वागत-आयोजन के पूर्व आचार्य की सेवा में पहुँचे ।।
"प्रभो ! आपके दिव्य देह पर यह मोटी देहाती चादर अच्छी नहीं लगती ! यह श्वेत-कौशेय चादर ग्रहण कर मुझे उपकृत कीजिए"-सम्राट ने सलज्ज भावों से आचार्य को निवेदन किया। ___ आचार्य की रहस्यभरी दृष्टि सम्राट की मुखभंगिमा पर दौड़ गयी- "क्यों, इस में क्या बात है ?"
"गुरुदेव ! आप तो निंदा-प्रशंसा से उपर उठ चुके हैं, किंतु हम संसारी प्राणी हर बात में अपनी प्रतिष्ठा देखते हैं, सम्राट के गुरु के देह पर यह चादर""जरा शर्म की बात है हमारे लिए""" ____ "शर्म ! कैसी शर्म.... ? मेरी चादर से सम्राट को शर्म आती है, और इस चादर के पीछे असंख्य-असंख्य दीन-विधवाओं की करुण-व्यथा छिपी है, उससे सम्राट को कोई सरोकार नहीं ?"-आचार्य की तेजदीप्त मुख मुद्रा से प्रचंड वाणी गूंज उठी ! “कुमारपाल ! इस चादर के एक-एक तार में श्रद्धा-विह्वल हृदय की धड़कन है, और है समाज की दीन-हीन दु:ख भागिनी अबलाओं का करुण कदन ! गरीबों की चादर से नहीं, गरीबी से सम्राट को शर्म आनी चाहिए। तुमने कभी उन अस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org