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कर्तव्य बोध
संस्कारों-सभ्यता एवं सदाचार को उद्दीप्त करने के लिए हित और पथ्य का यदि बार-बार उपदेश दिया जाता है तो उसमें कोई दोष नहीं है।
किन्तु यह कर्तव्यबुद्धि उसी में जागृत होती है, जो स्वयं अपने कर्तव्य को समझता हो, और दूसरों के द्वारा भले ही वे छोटे हों, कर्तव्य का बोध दिए जाने पर उसका स्वागत करता हो।
महर्षि वाल्मीकि के शब्दों में अप्रिय सत्य पथ्य को बोलने वाले दुर्लभ हैं, वैसे ही सुनने वाले और समझने वाले भी दुर्लभ हैं।
अप्रियस्य च पथ्य स्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः।'
- अप्रिय कर्तव्य व्यवहार को हितकर समझना और उसे आदरपूर्वक स्वीकार करना सभी संभव है, जब उपर्युक्त धावना हमारे मन में जागृत हो। इस कर्तव्य बोध-प्रेरक भावना को उद्दीप्त करने वाला एक प्रेरक संस्मरण है सुप्रसिद्ध तत्त्वज्ञानी पं० बनारसीदास जी का ।
पं० बनारसीदास जी अपने तलस्पर्शी आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान के लिए ही नहीं, किन्तु नीति, कर्तव्यनिष्ठा एवं उच्चस्तरीय राजभक्ति के लिए भी प्रसिद्ध थे। तत्कालीन राजदरबार में उनका बहुत सम्मान था।
३. वा० रा० १६२१
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