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कर्तव्य बोध
संस्कृत-भारती के रससिद्ध कवि पंडितराज जगन्नाथ
की एक सूक्ति है
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दोषोऽपि निर्मलधियां रमणीय एव काश्मीरजस्य कटुताऽपि नितान्त रम्या । ""
निर्मल बुद्धि से, कर्तव्य एवं हित की भावना से किया गया रोष भी रमणीय होता है, जैसे कि केसर की कटुता भी मनभावनी लगती है ।
पंडितराज के इसी स्वर को अभिव्यक्ति दी है, वेदों के प्रसिद्ध भाष्यकार उव्वट ने --
" संस्कारो ज्वलनार्थं हितं च पथ्यं च पुनः पुनरुपदिश्यमानं न दोषाय भवति । " २
१. भामिनीविलास ६६
२. यजुर्वेदीय उव्वट भाष्य १।२१
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