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जीवन स्फूर्तियाँ चल रहा था, गुरु ने पूछा-"शिवा ! यह सब क्या करवा रहे हो !"
शिवाजी ने कहा- "गुरुदेव ! कुछ नहीं ! यों ही इस बार अकाल की काली छाया से समूचा प्रान्त संत्रस्त हो रहा था, लोगों को न रोटी मिल रही थी, न रोजी ! तो कुछ प्रबंध कर दिया है, हजारों लोगों का पेट भर रहा है, सैकड़ों माताएं अपने अंचल से लिपटे दुध मुंहों का पोषण कर रही हैं।".......
"शिवा की वाणी में कर्तृत्व का अहं दीप्त हो रहा है, इसे जैसे लग रहा है, इस समूची सृष्टि का यंत्र उसी के हाथों से संचालित हो रहा है"-गुरु की अन्तर्भेदी दृष्टि ने शिवा के अन्तर में झांका, और पास में पड़े एक बड़े पत्थर की ओर संकेत कर पूछा-यह यहां क्यों पड़ा हुआ है।"
“यों ही दुर्ग की दीवार में चुना जाने को"........
"अच्छा, इसे तोड़ो'....गुरु की आज्ञा से पत्थर तोड़ा गया और उसके बीच में पानी का छोटा-सा कुड निकला जिससे फुदककर एक मेंढक बाहर आ गिरा।
शिवाजी इस आश्चर्य जनक घटना को देख रहे थे। गुरु ने गंभीर दृष्टि से शिवाजी की ओर देखा और एक मधुर हास्य बिखेरते हुए पूछा-"शिवा ! इस मेंढक के जल एवं भोजन का प्रबंध भी तुमने ही किया होगा ?" गुरु के प्रश्न की सहज तोक्ष्णता ने शिवाजी के अन्तर
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