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यात्मभ्रांति
१६७ बह को वींध डाला। भीतर ही भीतर अहंकार यों चूर
गया जैसे कोई मिट्टी के ढेले पर पत्थर की गहरी भोट पड़ी हो। शिवाजी गुरु के चरणों में झुक गये।
गुरु की ज्ञान-गरिमा-गरिष्ठ वाणी मुखरित हो उठी-'शिवा ! मनुष्य अज्ञान की आँधी में भटक कर सोचता है इस सृष्टि यंत्र का संचालक मैं ही हूँ, मेरे ही चरणों की आहट से पृथ्वी की धड़कन चल रही है। वे उस मक्खी की भांति सोचते हैं
अक्षधुरि समासीना मक्षिकैकावदत् पुरा । उत्थाप्यते मया मार्गे पांशुराशिरहो कियान ?
--एक मक्खी गाड़ी की धुरी पर सुख पूर्वक बैठी-बैठी कह रही थी-वाह, रास्ते पर मेरे चलने से कितनी धूल उड़ रही है ?" पर सचमुच यह आत्म भ्रांति जीवन जगत का सबसे बड़ा धोखा है, अज्ञान है।"
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