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अनुश्रुत श्रुतियाँ भिक्ष के अमृतवर्षी नेत्र सजल हो गए-“वासव दत्ते ! मैं हूँ भिक्ष उपगुप्त ! आज आने का उपयुक्त अवसर मुझे पुकार रहा था, मैं अपने वचनानुसार आ गया हूँ।”
भिक्ष की करुणा में असीम निस्पृहता को मधुर गंध महक रही थी। सेवा का अमृतस्पर्श पाकर वासवदत्ता का मोह मुग्ध जीवन ज्ञान की अमरज्योति से जगमग हो उठा।
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